इस वर्ष अक्टूबर में उदयपुर के पास इसवाल गांव में ग्रामीण संवेदनशीलता कार्यक्रम (आरएसपी) आयोजित होगा, जिसमें युवा डॉक्टर ग्रामीण और आदिवासी समुदायों के जीवन और संघर्षों को समझेंगे। हाल ही में बेंगलुरु में आयोजित वल्र्ड रूरल हेल्थ समिट में भारत, ऑस्ट्रेलिया, अमरीका, न्यूजीलैंड, नॉर्वे, नेपाल और श्रीलंका के डॉक्टरों ने इन्हीं समस्याओं और इनके संभावित समाधान पर चर्चा की थी। आमतौर पर चिकित्सा सम्मेलन डॉक्टरों तक सीमित रहते हैं और इनमें नर्सों तथा जन स्वास्थ्यकर्मियों को शामिल नहीं किया जाता। दाइयों की तो बात ही छोडि़ए। लेकिन इस ग्रामीण स्वास्थ्य सम्मेलन की शुरुआत नर्सों और दाइयों से की गई। दाइयों की गर्भावस्था, प्रसव, प्रसवोत्तर काल में महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती हैं, खासकर निम्न आय वाले देशों में। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2024 के आंकड़े बताते हैं कि दुनियाभर में लगभग 2.9 करोड़ नर्सें और 22 लाख दाइयां हैं। संगठन का अनुमान है कि दुनिया 2030 तक 45 लाख नर्सों और 3.1 लाख दाइयों की कमी से जूझ रही होगी।
ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा के लिए यह एक गंभीर चिंता है। दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवाओं और कवरेज तक पहुंच की कमी ग्रामीण क्षेत्रों में 56 प्रतिशत तक है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 22 प्रतिशत जनसंख्या तक सीमित है। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में 1.03 करोड़ स्वास्थ्यकर्मियों की कमी है। इनमें से दो-तिहाई ग्रामीण क्षेत्रों में चाहिए। खासकर अफ्रीका महाद्वीप में ग्रामीण जनसंख्या का 77 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है। लैटिन अमरीकी देशों में 24 और एशिया व प्रशांत क्षेत्र की 52 फीसदी ग्रामीण आबादी स्वास्थ्य सेवा कवरेज से वंचित है। यूरोप भाग्यशाली है, जहां ग्रामीण व शहरी दोनों क्षेत्रों की शत-प्रतिशत आबादी स्वास्थ्य सेवाओं से आच्छादित है।
रिपोर्ट के अनुसार भारत में स्वास्थ्यकर्मियों की कमी से कुल 62 प्रतिशत आबादी तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच नहीं है, इसमें से शहरी आबादी का प्रतिशत 50 और ग्रामीण का 68 है। पड़ोस में बांग्लादेश बहुत बुरी स्थिति में है, जहां 90 प्रतिशत ग्रामीण समुदाय तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच नहीं है। सबसे बेहतर स्थिति में चीन है, जहां गांवों व शहरों की मात्र 29 प्रतिशत आबादी ही स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच से दूर है। यह संकट वैश्विक है, लेकिन निम्न आय वाले देशों में यह अधिक गंभीर है।
उदाहरण के लिए, अफ्रीका के सबसे संपन्न देश नाइजीरिया में असमान आय वितरण के कारण 40 प्रतिशत लोग गरीबी में रहते हैं और स्वास्थ्य खर्च का 80 प्रतिशत हिस्सा स्वयं वहन करते हैं। भारत में हालांकि जेब से स्वास्थ्य खर्च 2017-18 में 48.8 प्रतिशत से घटकर 2021-22 में 39.4 प्रतिशत हुआ है। विकसित देशों में भी ग्रामीण स्वास्थ्य समस्याएं हैं। नीदरलैंड में ग्रामीण क्षेत्रों से युवाओं के शहरों की ओर पलायन से ग्रामीण इलाकों में वृद्ध जनसंख्या बढ़ रही है, जिनकी स्वास्थ्य जरूरतें तेजी से बढ़ रही हैं और उनका समाधान नहीं हो पा रहा है। ऑस्ट्रेलिया में ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत डॉक्टरों को ‘रूरल जेनरलिस्ट’ कहा जाता है। उन्हें विशेष संरक्षण तथा ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है।
1992 से, विश्व फैमिली डॉक्टर संगठन ने ग्रामीण स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देना शुरू किया है। इस संगठन ने ग्रामीण स्वास्थ्य सम्मेलनों और नीतियों के जरिए इस मुद्दे को वैश्विक एजेंडे में लाने का प्रयास किया है। हालांकि 20 वर्ष पहले विश्व फैमिली डॉक्टर संगठन और विश्व स्वास्थ्य संगठन के बीच ग्रामीण स्वास्थ्य पहलों पर एक कार्ययोजना बनी थी, किंतु जमीन पर कुछ खास बदलाव नहीं आया। ग्रामीण क्षेत्रों के लिए ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ का सपना तभी साकार हो सकता है जब अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय संस्थाएं स्थानीय डॉक्टरों, नर्सों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों के साथ मिलकर समन्वित प्रयास करें।