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गांवों में अपार श्रमशक्ति : हम या तो गांव को हमारी दया का फल मानते रहे या वोट की फसल

पत्रिका समूह के संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश जी के जन्मशती वर्ष के मौके पर उनके रचना संसार से जुड़ी साप्ताहिक कड़ियों की शुरुआत की गई है। इनमें उनके अग्रलेख, यात्रा वृत्तांत, वेद विज्ञान से जुड़ी जानकारी और काव्य रचनाओं के चुने हुए अंश हर सप्ताह पाठकों तक पहुंचाए जा रहे हैं।

जयपुरApr 30, 2025 / 07:35 pm

harish Parashar

श्रम शक्ति को याद करने का दिन यानी एक मई। श्रम दिवस मनाते-मनाते हम पता नहीं कब इसे मजदूर दिवस कहने लगे। श्रद्धेय कर्पूर चन्द्र कुलिश ने समय-समय पर अपने आलेखों में इसी बात पर चिंता जताई कि हमारे शासक वर्ग ने न तो श्रम शक्ति की ताकत समझी और न ही इस श्रम शक्ति का उपयोग करने की योजना बनाई। असली श्रम शक्ति गांवों में रहती है जिसके ज्ञान के आगे अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोग नासमझ दिखाई देते हैं। इसी श्रम शक्ति पर कुलिश जी के आलेख के प्रमुख अंश
हमारे देश के गांवों में श्रम शक्ति अर्थात जनशक्ति है। निष्ठा है, कर्म कौशल है, अनुशासन हैं, सुसंस्कार है और व्यक्तित्व की परिपक्वता है। हमारा ग्रामीण संस्कारों से इतना परिपक्व है कि वह निरक्षर होने के बावजूद जीव-जगत के बारे में सुस्पष्ट दृष्टि रखता है। ग्रह-तारों, ऋतुओं, मिट्टी-पानी, हवा, मौसम, बीमारी और आहार-विहार का यथेष्ट ज्ञान है। इस ‘ज्ञानी’ के सामने अच्छे खासे पढ़े-लिखे लोग नासमझ दिखाई देते हैं। कभी-कभी तो गांव का आदमी परम दार्शनिकों को भी मात देता नजर आता है। गांव में जाकर या गांव से आने वाले किसी से उसका नाम पूछोगे तो वह कहेगा- ‘नाम तो भगवान का है, मुझे मांगीलाल कहते हैं। गांव वालों में यह आम बात है कि वे नाम पर अपना अधिकार नहीं मानते। उसे केवल पहचान या उपाधि का स्वरूप मानते हैं। इस श्रम शक्ति का उपयोग करने की हमने कोई योजना नहीं बनाई। हम या तो गांव को हमारी दया का फल मानते रहे या वोट की फसल समझते रहे। आजादी को आधी सदी होने को आई परन्तु हमने गांव को बुनियादी सुविधा पानी, बिजली और सडक़ें भी प्रदान नहीं की। हम जनसंख्या वृद्धि को कोसते रहते हैं, जिससे हम अपने आपको धरती का भार समझने लगें। लेकिन इस जनसंख्या को हमने कभी देश की सम्पदा या विकास का साधन नहीं समझा। हमने जितने भी भौतिक विकास की तथाकथित योजनाएं बनाईं उनमें कभी यह विचार नहीं रखा कि एक पीढ़ी बाद का भारतीय मानव कैसा बनना चाहिए? हमने कभी यह योजना नहीं बनाई कि एक पीढ़ी बाद हमारी गाय का दूध कितना बढ़ जाएगा और भेड़ की ऊन कितनी वजनदार हो जाएगी? हमने गांव की जरूरत नहीं समझी, उसकी जीवन दृष्टि को नहीं आंका और उस पर उधार ली गई तकनीक लादते आए और उनके बढऩे के रास्ते नहीं ढूंढे। नतीजा यह हुआ कि ग्राम्य जीवन चौपट हो गया। शहरों की यांत्रिक भीड़ बढ़ती गई। गांव नीरस एवं आकर्षणहीन हो गए। गांव के लोगों ने ही शहरों में जाकर उनको बेड़ोल-बेहाल बना दिया। दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे देश के नेताओं ने आजादी के बाद भी गांव के वास्तविक स्वरूप को समझने की कोशिश नहीं की।
(कुलिश जी के आलेखों पर आधारित पुस्तक ‘दृष्टिकोण’ से)

अमरीका में भारतीय

अमरीका में भारतीय प्रवासियों को रोजगार मिलने में कोई कठिनाई नहीं होती। आम प्रवासी के बारे में यहां लोगों की राय बहुत अच्छी है। जिस कम्पनी में भी भारतीय कार्य करते हैं वह उनको अपनी कमाऊ संपत्ति समझती है। और, यह सही भी है कि औसत अमरीकी के मुकाबले एक भारतीय इंजीनियर या शिक्षक की योग्यता-क्षमता अधिक होती है। यहां पर आम तौर पर उच्च शिक्षा के लिए भारतीय लोग आते हैं और यहीं बस जाते हैं। वैसे भी ये भारतीय संस्थाओं के उच्चकोटि के छात्र होते हैं अत: स्वाभाविक है कि उनकी योग्यता अच्छी हो।
(‘अमरीका एक विहंगम दृष्टि’ पुस्तक से )

सुधार के वक्त रखें ध्यान

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज की हर एक जाति किसी धंधे के साथ टिकी हुई है। देश के किसी भी गांव को देखें, उसमें धंधेवार जातियां और जातिवार मोहल्ले बने हुए हैं। धंधे के कारण हर एक जाति अपने आप में स्वतंत्र है और विभिन्न जातियों के एक जगह रहने के कारण प्रत्येक गांव अपने आप में स्वतंत्र है। इसे ध्यान में रखते हुए ही कोई सुधार किया जा सकता है। एक ओर जहां सुधारकों के लिए सोचना जरूरी है, सरकार को भी कारगर कदम उठाने होंगे। जो जातियां हीन भावना से अपने कदीमी धंधे और रहन-सहन को बदलने में लगी हुई हैं उनके धंधों को फिर से जीवन देने के लिए उपाय किए जाने चाहिए। इसके लिए लघु उद्योग निगम की दो शाखाएं बनाई जाएं जिनमें एक तो बड़े पैमाने पर दस्तकारी के काम को देखें और दूसरी छोटे-छोटे कारखानों को सहायता दें या नए कारखाने कायम करने का बीड़ा उठाएं।
(यात्रा वृत्तांत आधारित पुस्तक ‘मैं देखता चला गया’ से )

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