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पैरेंटिंग : विरोधाभास के दोराहे पर खड़े भारतीय माता-पिता  

डॉ. शीतल नायर, साइकोथैरेपिस्ट एवं टेड एक्स स्पीकर

जयपुरJun 09, 2025 / 05:32 pm

Neeru Yadav

पहले भारत में बच्चों का लालन-पालन केवल माता-पिता का ही नहीं, पूरे समुदाय का दायित्व था। बच्चे दादा-दादी, पड़ोसियों, गांव के बुजुर्गों और सामूहिक परंपराओं की छाया में पलते थे। संयुक्त परिवार की गोद, साझा मूल्य और सांझ की सामूहिक बैठकों में ही पालन-पोषण का सच्चा अर्थ निहित था। लेकिन आज यह भूमिका एक प्रदर्शन में बदल गई है, जिसमें माता-पिता की सफलता बच्चे के संस्कार नहीं, बल्कि परीक्षा में अंक, म्यूजिक, सर्टिफिकेट और स्क्रीन टाइम की सख्ती के आधार पर आंकी जाती है। इस दौड़ में हमने वो भावनात्मक जुड़ाव खो दिया, जो पालन-पोषण को सार्थक बनाता है।
अहमदाबाद की ‘अभयम 181 हेल्पलाइन’ पर पिछले वर्ष पालन-पोषण से जुड़ी शिकायतों में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई। मांएं बच्चों के गुस्से, स्कूल न जाने की जिद और स्क्रीन की लत से परेशान हैं। पिता बच्चों की अवज्ञा के सामने असहाय और अपने क्रोध पर पछताते दिखे। भावनात्मक साक्षरता के अभाव में इन पढ़े-लिखे और जागरूक माता-पिता की जागरूकता वाष्प की तरह उड़ जाती है।
वर्ष 2023 में कोचिंग के लिए कोटा गए 26 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की। माता-पिता अपने बच्चों को महत्त्वाकांक्षा के नाम पर कोटा भेजते हैं, लेकिन बच्चों से कभी यह नहीं पूछा गया कि वे अकेलेपन और दबाव के लिए मानसिक रूप से तैयार भी हैं या नहीं। कोटा की हर त्रासदी के पीछे एक माता-पिता है, जो भला तो चाहता था, लेकिन सुनना नहीं सीख सका।
उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में एक 15 वर्षीय लडक़े ने अचानक बोलना बंद कर दिया। माता-पिता उसे ओझा के पास ले गए। असल में उसे चिकित्सा की जरूरत थी, जो उसे नहीं मिली—मिला सिर्फ मौन और अंधविश्वास।
बेंगलूरु जैसे महानगरों में भी भावनात्मक टकराव की जड़ें गहरी हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, तलाकशुदा माता-पिता अपने बच्चों को ‘भावनात्मक हथियार’ की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, जिससे बच्चे ऐसी लड़ाइयों में फंस रहे हैं, जो उन्होंने खुद नहीं चुनी हैं।
आज का भारतीय माता-पिता विरोधाभास के दोराहे पर खड़ा है। एक ओर कोमल, भावनात्मक और संवादशील होने की अपेक्षा, दूसरी ओर परंपरागत आज्ञाकारिता, अनुशासन और निर्विवाद सम्मान की मांग। हम चाहते हैं कि बच्चा जड़ों से जुड़ा भी हो और वैश्विक दृष्टिकोण भी रखे, आज्ञाकारी भी हो और आत्मविश्वासी भी, भावुक भी हो, पर ‘अत्यधिक नाटकीय’ न हो। जब बच्चा डगमगाता है तो अमूमन हम या तो बहुत कठोर हो जाते हैं या अत्यधिक सहानुभूति में बह जाते हैं। यह मुद्दा अब सिर्फ नियम तोडऩे या ट्यूशन छूटने तक सीमित नहीं है। यह केवल पारिवारिक समस्या नहीं, मानसिक स्वास्थ्य का संकट है। राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, पढ़ाई के दबाव और असफलता के डर से 2022 में 13,089 छात्रों ने आत्महत्या की, जो 2021 में 12,526 थी। ग्रामीण व कस्बाई भारत में बच्चे अपनी पहचान, अपेक्षाओं और मार्गदर्शन के अभाव से जूझ रहे हैं। माता-पिता या तो जीवन-यापन में व्यस्त हैं या अपने बचपन के घावों को ढो रहे हैं। हम ‘चक्र तोडऩे’ की बात करते हैं, लेकिन अगली पीढ़ी को घबराहट, शर्म और मौन सौंप रहे हैं।
इस संकट को और गहरा करता है माता-पिता का अपना दर्द। वे अपने सामथ्र्य अनुसार सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर रहे हैं, परंतु उनके प्रयास सीमित है। उनके सामने अत्यधिक काम का अपराधबोध, बच्चे को ‘काबू’ में न रख पाने की शर्म, समाज और ससुराल की अपेक्षाओं का बोझ, आर्थिक असुरक्षा जैसी चुनौतियां हैं।
आज का पालन-पोषण अंतहीन कार्यों की सूची बन गया है। दाखिला, व्यवस्था, अनुशासन, मनोरंजन, प्रतियोगिता। इस बीच बच्चे की मासूमियत खो जाती है और माता-पिता की शांति भी। क्या यह ताज्जुब नहीं कि हमारे घरों में आज आवाजें तो बहुत हैं, पर संवाद गायब है?
फिर सच्चा संवाद क्या है? जब हम कहते हैं, ‘बच्चों से बात करो’ तो इसका मतलब यह नहीं कि तुमने आज पढ़ाई की या नहीं? इतनी देर तक इंस्टाग्राम क्यों चलाया? शर्मा जी की बेटी के कितने नंबर आए? बल्कि यह होना चाहिए कि आज तुम्हारा दिल कैसा महसूस कर रहा है? इस हफ्ते तुम्हें सबसे ज्यादा खुशी किस बात से मिली? क्या कुछ ऐसा है जो तुम कहना चाहते हो, पर कह नहीं पा रहे? बच्चों को ‘परफेक्ट’ माता-पिता नहीं चाहिए, उन्हें ऐसे माता-पिता चाहिए जो उपलब्ध हों। जो कह सकें, ‘मुझे नहीं पता’ जो रो सकें जो माफी मांग सकें।
जो माता-पिता बच्चों से पुन: जुड़ाव की चाह रखते हैं, उनके लिए कुछ सरल दिशानिर्देश इस प्रकार हो सकते हैं : रोजाना कम-से-कम एक घंटा तकनीक से दूर-केवल परिवार के साथ रहे, केवल परिणाम नहीं, प्रयास की भी सराहना करें कहें, ‘कोशिश के लिए गर्व है, यदि आप गलत हों तो माफ़ी मांगें’- उत्तरदायित्व का उदाहरण बनें, जब बच्चा गुस्से या उदासी में हो, तुरंत समाधान देने की जगह केवल सुनें, स्कूल के काम से आगे बढक़र उसकी भावनात्मक दुनिया के बारे में पूछें।
हम विफल इसलिए नहीं हो रहे कि हम बच्चों को ‘सही खिलौना’ या ट्यूशन नहीं दे सके। हम तब विफल होते हैं जब हम कई दिनों तक उनकी आंखों में नहीं झांकते, ये नहीं पूछते, ‘कौन सी बात तुम्हें रातों को जगाए रखती है?’ जब यह सोचते हैं कि उनके लिए सब कुछ करना ही उन्हें भावनात्मक साथ देना है।
बच्चे निवेश नहीं, व्यक्ति हैं। वे केवल अनुशासन या महत्त्वाकांक्षा से नहीं, बल्कि हंसी, सुरक्षा और प्रेम से पनपते हैं। हमारी सबसे बड़ी विरासत न बैंक-बैलेंस होगा, न कोई प्रमाणपत्र, बल्कि एक स्मृति होगी ‘मेरे माता-पिता ने मुझे देखा पूरे मन से बिना शर्त।’

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