जिन्दगी का यह ऐसा क्या रूप बन गया कि व्यक्ति जी रहा है, कुछ कर भी रहा है और उसका न कारण जानता है, न ही लक्ष्य। कहीं आग है तो सोम दौड़ता है जलने के लिए। लोगों को न आग दिखाई देती है, न ही सोम—आग की लपटें दिखाई देती हैं। आग में माया है, बल है, शक्ति है। सोम में भी माया है, बल है, शक्ति है। लपटें ही शक्ति हैं। गर्भ में बल रूप माया है। माया ही मां है। स्त्री सौम्या है शरीर से- मातृत्व भाव के लिए अग्नि है। पुरुष दौड़ता है उसकी ओर। ब्रह्म आहुत होता है माया में। स्वयंभू प्रविष्ट हो जाता है परमेष्ठी के अप् समुद्र में। तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्। माया के बुदबुद के केन्द्र में ब्रह्म प्रतिष्ठित हो जाता है। ऋताग्नि और ऋतसोम मिलकर सत्य रूप ले लेते हैं।
मैं मां भी हूं, पत्नी हूं। बाहर सौम्या पत्नी हूं। पुरुष के लिए कर्म करती हूं अद्र्धांगिनी बनकर। भीतर मैं मां हूं- शक्ति हूं, बल हूं, माया भी हूं। बाहर प्रकाश में कार्य करती हूं- भीतर अंधकार में। बुदबुद ने मेरी आंखों में चमक भर दी- मैं मां बनने को उत्सुक तो थी ही। क्षितिज पर मन के एक प्रकाश फूट पड़ा और उसी में बाहर-भीतर का निर्माण शुरू हो गया। माया का कार्य हो चुका था। रस-बल साथ हैं। एक ओर आत्मा के परिष्कार का क्रम शुरू हो गया है, तो दूसरी ओर, शरीर के निर्माण का। आत्मा ही मन-प्राण-वाक् है। मन की कामना के प्राणन से ही ब्रह्म का अवतरण मेरे भीतर हुआ। आज मैं विश्व की सौभाग्यशाली स्त्री हूं, जिसकी कोख में ब्रह्म प्रतिष्ठित है।
हृदय स्थित तीनों देव प्राणों—ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र- की शक्तियां—महासरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली- तीनों मेरे साथ निर्माण में जुट गईं। काली अंधकार में ज्योति रूप है, लक्ष्मी अर्थ सृष्टि रूप काया है, सरस्वती शब्द रूप आत्मप्रकाश है। तीनों मिलकर शिशु के पंचकोशात्मक शरीर का निर्माण करती हैं और जीवात्मा को संस्कारित करने में मेरी सहायता भी करती हैं। लक्ष्मी स्थूल शरीर है- अर्थवाक् है, सरस्वती सूक्ष्म शरीर-प्राणशरीर- की शब्दवाक् है। आत्मा अव्यय पुरुष है। अव्यय पुरुष की सृष्टि कलाएं- आनन्द, विज्ञानगर्भित मन-प्राण-वाक् ही देह रूप लेती है। प्राण से प्राणमय कोश, वाक् से अन्नमय कोश बनता है। मैं ही लक्ष्मी का कार्य करती हूं, मैं ही सरस्वती का।
जिस शरीर का निर्माण हो रहा है, वह इन्हीं दो धरातलों पर हो रहा है। जो पिण्ड रूप देह है उसका निर्माण चिति (चिनाई) रूप होता है। दूसरा रूप चितेनिधेय है। यह पिण्ड का आभामण्डल है, साम है। पिण्ड जड़ और साम चेतन होता है। साम ही वस्तु का वाक् वषट्कार* मण्डल बनाता है। इसी में 33 अहर्गण होते हैं। पिण्ड का निर्माण मूल रूप में अन्न से होता है। गर्भवती स्त्री का अन्न कई श्रेणियों में बंटा होता है।
शरीर का अन्न जो घर में खाया जा रहा है, वह स्त्री की प्रकृति का अनुसरण करता है। घर की आर्थिक स्थिति पर अधिक निर्भर करता है। दूसरा भाग शास्त्रसम्मत अन्न है, जिसमें सत्वगुण की प्रधानता होती है। तीसरा जीवात्मा (गर्भस्थ) के संस्कार जिस अन्न का आग्रह करते हैं। चौथा मौसम—जलवायु के अनुकूल। सम्पूर्ण अन्न से सात्विक मन का निर्माण होता है। मां में भी, शिशु में भी।
नाद ब्रह्म भी अन्न के रूप में उपयोगी होता है। नाद के स्पन्दन ही गतिधर्मा होते हैं। मां-शिशु के मध्य शब्द नहीं बहते, स्पन्दन ही प्रवाहित होते हैं। इस प्रवाह का मार्ग नाभि संस्थान है। यहां 72,000 नाडिय़ों का संगम स्थल है। यही पश्यन्ति वाक् (दृश्यात्मक) का केन्द्र है। शब्द का चित्रण मात्र रहता है। यही मानवीय साधना का शिखर भी है। मां-शिशु का सम्पूर्ण आदान-प्रदान यहां होता है। यही भक्तियोग की पराकाष्ठा भी है। मां के मन में सन्तान का चित्रण और भावनाओं की गुनगुनाहट-तन्मयता। वाह! कोई मां से पूछे—’किसके ध्यान में खोई थी’- उत्तर नहीं हो सकता। केवल मुस्कान होगी। शिशु से संवाद में पति का प्रतिबिम्ब और उसके भी गर्भ में परमेश्वर से एकाकार। सच में संवाद ही नहीं था। कोई था ही नहीं वहां। मां खो गई थी, शिशु अबोध था, पति अनभिज्ञ था- बस एक ईश्वर था- कृष्ण था- उसका ही गीत था।
बाहर शरीर की सौम्यता चरम पर- भीतर का अग्नि भी घन रूप। चिति को पकाने का, वैश्वानर प्रज्वलित रखने का अनवरत क्रम अहर्निश चलता रहता है। एक ओर माता के सप्त धातुओं का निर्माण, दूसरी ओर सन्तान देह की सप्त धातुओं का निर्माण क्रम दस माह तक होता है। इसी बीच सूर्य का भ्रमण भी एक-एक माह, एक-एक राशि पर चलता है। माता और शिशु का अध्यात्म पूर्ण रूप से प्रभावित होता रहता है। शरीर और मन में निरन्तर उतार-चढ़ाव, चन्द्रमा का मन में ज्वार-भाटा, दोनों के शरीरों को विचलित करता रहता है। घर के परम्परागत पूजा-उत्सव-अनुष्ठानों में उपयुक्त ध्वनि, मंत्रों का प्रभाव, मां के मोबाइल ध्वनि का रक्त पर प्रभाव भी पड़ता है। शरीर में तीन चौथाई जल (रक्त-मांसादि) रहता है, जो ध्वनि-स्पन्दन से प्रभावित होता है।
जल ध्वनि को संग्रहित करता है। सभी धर्मों में अभिमंत्रित जल का महत्व है। गर्भवती के मन में ध्वनि (विचार-लोरियां) सात्विक या तामसिक होगी, वैसा ही उसके रक्त पर प्रभाव पड़ेगा। सात्विक ध्वनि रक्तशोधन करेगी, तामसिक ध्वनि रक्त में विकार पैदा करके रोगग्रस्त करती है। शिशु भी रोगग्रस्त हो जाता है। भक्ति ही इस काल का स्वर्णिम कर्मक्षेत्र है।
मां को शिशु शरीर में भी अग्नि-सोम का संतुलित पोषण करना पड़ता है। अद्र्धनारीश्वर तो प्रत्येक सन्तान होगी ही। इसका अनुमान शिशु के अंग संचालन से लगा लेती है। आमतौर पर कन्याशिशु शान्त रहा करती है। लड़का हाथ-पैर चलाता ही है। इसी के अनुरूप पोषण द्रव्यों में बदलाव कर लेते हैं। आठवें मास में माता की यात्रा एवं अनावश्यक हलचल पर नियंत्रण रहता है। जीवात्मा का शरीर से बाहर आने-जाने का क्रम रहता है। इसके साथ ही गर्भस्थ शिशु के संस्कार भी होते हैं जो मां को ध्यान में रखने होते हैं।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com वषट्कार का अर्थ है वाक्-षट्कार। प्रत्येक वस्तु के अर्थात् वाक् के छह भाग होते हैं। प्रत्येक भाग छह-छह अहर्गण का होता है। छह अहर्गण मिलकर एक स्तोम कहलाता है। पहला भाग (वस्तुत: दो भाग) नौ अहर्गण का होता है जिसे त्रिवृत स्तोम कहते हैं। अगला (9+6) 15वां स्तोम, 21वां स्तोम, 27वां स्तोम तथा 33वां स्तोम कहलाता है, ये कुल ३३ अहर्गण रूप छह भाग वषट्कार कहे गए हैं।