बढ़ते महिला अपराधों के आगे कानून, पुलिस और समाज तक झूठे प्रमाणित हो गए। रक्षक-शिक्षक सब मुखौटे रह गए। नारी सशक्तीकरण का नारा नकली निकला जब कार्यस्थलों पर 50 से 70 प्रतिशत तक यौन शोषण के आंकड़े बाजार में उपलब्ध हैं। अकेले वर्ष 2022 में महिला उत्पीड़न के 4,45,256 मामले रिकॉर्ड पर थे। उसके बाद तो राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो ने आंकड़े जारी ही नहीं किए। जब व्यक्ति अपने देवता का ही अपमान करने लगे, पशु के समान व्यवहार करने लगे, उसकी सुरक्षा और सम्मान खतरे में पड़ जाए, तो वह नारी समाज को शाप क्यों नहीं देगी!
आज देश की नारी ने करवट बदली है। शिक्षा-तकनीक-खेल-सेना-प्रशासन हर क्षेत्र में पुरुषों से आगे निकल रही हैं। शीघ्र ही पुरुष तनावग्रस्त होने लगेगा। नशा उसका एकमात्र सम्बल होता जा रहा है। शिक्षा में शरीर ही रह गया, आत्मा खो गई। व्यक्ति शरीर नहीं, आत्मा है। पुरुष तो मात्र शरीर है, स्त्री शरीर भी है, देवता (सूक्ष्म स्तर) भी है। जननी, पालक और संहारक भी है। वह परोक्ष जीवी है ‘परोक्ष: प्रिया हि वै देवा’ है।
स्त्री ब्रह्म को पेट में पालती है, आकृति देती है, बिना किसी भाषा या संसाधन के शिशु को संस्कारित करती है। जीवात्मा का भूत-भविष्य-वर्तमान जानती है, संवारती है। ब्रह्म की शक्ति है। जीव को पुन: ब्रह्म तक लौटने में हेतु बनती है। आज अपनी पहचान भूलकर खिलौना बन गई, मुद्रा बन गई, कैंसर का शिकार बन गई। सारा देवत्व राख में मिल गया। भोग की ‘वस्तु’ बन गई।
ब्रह्म ही प्रकृति बनकर विश्व का संचालन करता है। दो अलग तत्व नहीं हैं। अकेला तो व्यर्थ है। एक की रक्षा ही दूसरे की रक्षा है। क्योंकि भीतर दोनों एक हैं-पूरक भी हैं। अत: परस्पर सम्मान, विकास और सहयोग में हमारा ही हित साधन है। हर मां को यही भाव संतान के मन में कूट-कूटकर भरना चाहिए। आज जो व्यक्ति महिला पर अत्याचार कर रहा है वह भी तो किसी मां का ही तैयार किया गया है। अत: मूल में तो मां की सुरक्षा मां के ही हाथ में है।
संतुलन का संकट
व्यवहार तो स्वभाव पर निर्भर करता है। मां के रूप में माया अपने कर्म का फल नहीं मांगती। प्रकृति रूप में फल मांगती है-पत्नी। शिक्षा ने उसे भी ‘लेने’ पर केन्द्रित कर दिया। स्वयं के लिए जीने की ललक ने उसके लावण्य और माधुर्य को विस्मृत करा दिया। परिवार से अलग होकर बड़ा बनने की चाह ने उसे अधिक असुरक्षित कर दिया। जब आप किसी के बनकर जीओगे तो कोई आपकी रक्षा करेगा। शरीर का नाम स्त्री-पुरुष नहीं है। शरीर जड़ है, भीतर कोई जीता ही नहीं। शरीर से नया शरीर ही पैदा हो रहा है-संस्कारित मानव बीच रास्ते खो जाता है। जिस समाज में महिला सुरक्षित नहीं है, सम्मानित नहीं है, वह तो एक अभिशप्त समाज ही होगा। न वहां अभ्युदय है, न ही नि:श्रेयस। जैविक व्यवहार होगा, पशुता का नृत्य होगा। स्त्री सहज रूप में भी पुरुष को शापित कर सकती है। उसे सूक्ष्म प्रकृति का ज्ञान होता है। वह जीवात्मा की भाषा और उससे संवाद करना जानती है। पुरुष का अहंकार ही इस अभिशाप को निमंत्रण देता है। मानव शरीरों में पशु पल रहे हैं। संवेदना से समाज मुक्त हो रहा है।
समाज-कानून-दण्ड पशुओं पर लागू नहीं होता। अज्ञान और अनाचार का बोलबाला है। कमजोर पर आक्रामकता बढ़ रही है। इनको तो मर्यादा में रहकर ही ठीक किया जा सकता है। शिक्षा व्यक्ति को बांधने नहीं देती। तब आपका रक्षक कौन? आपको भी तो किसी के लिए जीना पड़ेगा। हम पश्चिम की नकल आंख मूंदकर कर रहे हैं। ऐसी नकल में हमें भी जीवन में 2-3-4 शादियां करने को तैयार रहना चाहिए। यही उनकी सुरक्षा की आज की परिभाषा बन गई। सारे रिश्ते शरीर और भौतिकता तक सिमट गए। स्त्रियों के प्रति भोग भाव, अपराध भाव वहीं से आया है। वहां अध्यात्म का स्वरूप हमारे जैसा नहीं है।
ब्रह्म और माया एक ही है। साथ रहते हैं। स:त्रि। ब्रह्म ही त्रिगुणा प्रकृति है। स्त्री है। हर पुरुष स्त्री है और हर स्त्री भीतर पुरुष है। दोनों अपने भीतर से पुष्ट हो जाएंगे तो दोनों ही सुरक्षित हो जाएंगे। आज दोनों अपने एक भाग (बाहरी) को ही पुष्ट करते रहते हैं। अत: समाज संतुलित नहीं हो सकता। हमारी शिक्षा की यही कमी है।
सम्मानित समाज के लिए मां-बाप को शिक्षित करना होगा। शिक्षा में अध्यात्म की प्रधानता होनी आवश्यक है, भौतिकवाद बाद में। अज्ञानी के हाथ में हथियार देना कहां की समझदारी है? अभिमन्यु की तरह पेट में संतान को संस्कारित करना सिखाना है। वरना, वही संतान पराए की तरह व्यवहार करेगी। उसका दोष कहां है? परिवारों में आस्था-भक्ति-ईश्वर का डर सब कुछ होना चाहिए। संवेदनशील, प्राकृतिक स्वरूप के मानव का निर्माण ही सह अस्तित्व का मार्ग है। सह अस्तित्व ही सम्मान है, सुरक्षा है।