सन् 1845 में बनारस अखबार और 1868 में भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा ‘कविवचन सुधा’ ने हिंदी पत्रकारिता को साहित्यिक आधार दिया। ‘कविवचन सुधा’ ने सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक लेखों के साथ जन-जागरण में योगदान दिया। भारतेंदु ने ‘हरिश्चंद्र’ मैगजीन और ‘बाला बोधिनी’ में भी हास्य-व्यंग्य को स्थान दिया। बालकृष्ण भट्ट ने भारत मित्र में ‘शिव शम्भू के चित्र स्तंभ के माध्यम से अंग्रेजी सरकार और सामाजिक मुद्दों पर तीखा व्यंग्य किया, जो हिंदी पत्रकारिता मे एक नए मोड़ का आरंभ भी था।
एक जगह अपने व्यंग्य में बाल मुकुंद गुप्त लिखते हैं- माई लॉर्ड, जब से आप भारतवर्ष पधारे हैं, बुलबुलों का ही स्वप्र देखा है या सचमुच कोई करने योग्य काम भी किया है ? खाली अपना ख्याल ही पूरा किया है या यहां की प्रजा के लिए भी कुछ कर्तव्य पालन किया है। आपने भारत में केवल स्वप्न देखा या प्रजा के लिए कुछ किया? यह व्यंग्य हिंदी पत्रकारिता में सत्ता को चुनौती देने का प्रतीक था। ‘मतवाला’ साप्ताहिक ने निराला और अकबर इलाहाबादी जैसे रचनाकारों के व्यंग्य को स्थान दिया, जैसे ‘जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’ जो हिंदी पत्रकारिता की जुगलबंदी को दर्शाता है।
हालांकि, कुणाल कामरा का प्रसंग इस संदर्भ में उल्लेखनीय है व्यंग्य और कटाक्ष को बर्दाश्त करने का माद्दा समाज में उत्तरोत्तर कम हुआ है । हमारी संकीर्णता बढ़ी है। सर्वोच्च न्यायालय को आखिरकार दखल देना पड़ा और कला और साहित्य की अभिव्यक्ति को अभयदान की वकालत करनी पड़ी । किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह स्थिति शुभ नहीं है । हिंदी पत्रकारिता को हास्य-व्यंग्य की इस परंपरा को बनाए रखते हुए जनता को सजग और सशक्त करना होगा।