कल्पना कीजिए कि आप उस अपराध स्थल पर कदम रख रहे हैं, जहां अभी-अभी हिंसक घटना घटी है। खून से सना फर्श, बेजान बच्चे को सीने से लगाए मां की चीखें, अपने परिवार की रक्षा न कर पाने वाले पिता की बेबसी-यही देखना-सहना एक पुलिस अधिकारी की रोजमर्रा की सच्चाई है। उन्हें भावशून्य रहना पड़ता है, इस भयावहता को दर्ज करना होता है, हालात को नियंत्रित करना पड़ता है और फिर ऐसे आगे बढ़ जाना होता है, मानो कुछ हुआ ही न हो। ऐसा लगभग हर दिन होता है। 26/11 के मुंबई आतंकी हमलों के दौरान अहम भूमिका निभाने वाले मुंबई पुलिस के अधिकारी विश्वास नांगरे पाटिल ने कई साक्षात्कारों में बताया है कि उस रात जो रक्तपात और मौतें उन्होंने देखीं, वे वर्षों बाद भी उनका पीछा नहीं छोड़तीं। निर्दोष जीवन छिन जाने के दृश्य, यह अहसास कि वह सभी को बचा नहीं सके-ये यादें कभी नहीं मिटतीं। दिल्ली में एक युवा कांस्टेबल ने अपराधियों से नहीं, बल्कि अपने ही अवसाद से जान गंवा दी। उसने अपनी सर्विस रिवॉल्वर से अपने मन की चीखों को शांत करने की कोशिश की। उसके सुसाइड नोट में लिखा था कि वह अब इस दबाव को सहन नहीं कर सकता। वह अपराधियों के सामने दृढ़ता से खड़ा रहा, लेकिन उसकी अपनी निराशा ही उसकी सबसे बड़ी दुश्मन बन गई और फिर दिल्ली पुलिस का वह अधिकारी, जिसके वायरल वीडियो ने लोगों को हंसाया-मेट्रो में लडख़ड़ाते हुए, ठीक से खड़े होने में असमर्थ। इंटरनेट ने उसे ‘ड्यूटी पर नशे में’ बता दिया। लेकिन वे सच्चाई नहीं जानते थे। उसे ब्रेन स्ट्रोक हुआ था।
वर्षों तक बिना नींद के रातें बिताने, अपराधियों का पीछा करने और हमेशा ‘सुपरह्यूमन’ बने रहने की अपेक्षाओं ने उसके शरीर को तोड़ दिया था। जब कानून के रखवाले ड्यूटी पर होते हैं, तो वे वर्दी पहनते हैं, लेकिन घर पर वे एक पति, पत्नी, माता-पिता और संतान भी होते हैं। पर वे उन भयावह घटनाओं को अपने मन से कैसे मिटाएं? जिस दिन वे किसी मृत शरीर को अपने हाथ से उठाते है, उस दिन अपनी संतान को गले कैसे लगाएं? कल्पना कीजिए- एक सम्मानित पुलिस अधिकारी की छोटी-सी बेटी अपने जन्मदिन पर पिता के घर आने का इंतजार कर रही है। केक तैयार है, मोमबत्तियां जल चुकी हैं। लेकिन वह नहीं आता। इसलिए नहीं कि वह शहर की सुरक्षा में व्यस्त है, बल्कि वह अपनी कार में अकेले बैठा शून्य में ताक रहा है और घर में प्रवेश करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा। उनके मन पर अभी-अभी देखे गए अपराध स्थल का बोझ हावी है। उनके परिवार उनसे प्यार तो करते हैं, लेकिन हमेशा उन्हें समझ नहीं पाते और समाज?
समाज केवल वर्दी को देखता है, उनके अंदर के इंसान को नहीं। जब कोई अधिकारी टूट जाता है तो उसे उपहास का पात्र बना दिया जाता है। जब वे क्रोध व्यक्त करते हैं तो उन्हें असंवेदनशील कहा जाता है। जब वे मदद मांगते हैं तो उन्हें ‘और मजबूत बनने’की सलाह दे दी जाती है। आखिर कब तक? कितनी देर तक वे खुद को संभाल सकते हैं, इससे पहले कि वे पूरी तरह बिखर जाएं? पुलिस सेवाओं में मानसिक स्वास्थ्य संकट स्पष्ट दिखने के बावजूद विभागीय सहयोग नगण्य है। मनोवैज्ञानिक परामर्श दुर्लभ है और मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रम लगभग नदारद हैं। हमारे कानून के रखवाले आधुनिक योद्धा हैं, फिर भी हम उन्हें उनके मानसिक कल्याण को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक उपकरणों से लैस करने में विफल रहे हैं। अब चुप्पी तोडऩे का समय आ गया है। उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यह न केवल उनके लिए, बल्कि सुरक्षा के लिए उन पर निर्भर समाज के लिए भी जरूरी है।