हिंदू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार कल्प के अंत में या प्रलय के समय जब पृथ्वी जल में डूब जाती है, तब भी यह वृक्ष अडिग खड़ा रहता है। उस समय अक्षय वट के एक पत्ते पर बालरूप में जगत के पालनहार भगवान विष्णु प्रकट होकर सृष्टि की रक्षा करते हैं। इस वट वृक्ष और इसके चमत्कार का जिक्र चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरणों में भी मिलता है। आइये जानते हैं अक्षय वट की कहानी और इससे जुड़े रहस्य, साथ ही किन राजाओं ने नष्ट करने की कोशिश की, लेकिन वो कामयाब नहीं हुए।
ये हैं भारत में मौजूद पांच सबसे पुराने वट वृक्ष
तीर्थ दीपिका में पांच वट वृक्षों का उल्लेख मिलता है, जिसका हिंदू धार्मिक आस्था में बड़ा महत्व है और भारतीय संस्कृति के गवाह हैं। किसी के नीचे ऋषि मुनि ने ध्यान लगाया तो ग्रंथ के अनुसार कोई देवताओं का लगाया हुआ है। आइये जानते हैं तीर्थ दीपिका में वर्णित 5 सबसे पुराने वट वृक्षों के विषय मेंवृंदावने वटोवंशी प्रयागेय मनोरथा:।
गयायां अक्षयख्यातः कल्पस्तु पुरुषोत्तमे।।
निष्कुंभ खलु लंकायां मूलैकः पंचधावटः।
स्तेषु वटमूलेषु सदा तिष्ठति माधवः।।
त्रिवेणी माधवं सोमं भारद्वाजं च वासुकीम्, वंदे अक्षयवटं शेषं प्रयाग: तीर्थ नायकम्।
त्रिदेवों की शक्ति से जुड़ा है अक्षय वट
अक्षय का अर्थ है कभी न खत्म होने वाला। इसीलिए इस बरगद वृक्ष को अक्षय वट कहते हैं। तीर्थ दीपिका के अनुसार हिंदू धर्म के सबसे पुराने और महत्वपूर्ण वट वृक्ष प्रयागराज त्रिवेणी तट पर स्थित अक्षय वट, उज्जैन का सिद्धवट, मथुरा का वंशीवट, गया का गया वट और पंचवटी नासिक का पंचवट है।इसके अलावा वाराणसी के एक वट वृक्ष को भी अक्षय वट माना जाता है। कुरूक्षेत्र में ज्योतिसर के बरगद वृक्ष को भी अक्षय वट के नाम से जाना जाता है। बताया जाता है भगवान कृष्ण द्वारा दिए गए गीता उपदेश का यह साक्षी है। सोरों ‘शूकरक्षेत्र’ में गृद्धवट भी अक्षय ही माना जाता है। मान्यता है कि यहां पृथ्वी-वाराह संवाद हुआ था। इसमें भी आइये जानते हैं त्रिवेणी तट पर स्थित अक्षय वट की कहानी ..
हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार प्राचीन काल में पृथ्वी को बचाने के लिए भगवान ब्रह्मा ने यहां पर यज्ञ किया था। इस यज्ञ में वे पुरोहित, भगवान विष्णु यजमान और भगवान शिव यज्ञ के देवता बने थे। यज्ञ संपन्न होने के बाद त्रिदेवों ने पृथ्वी पर पाप के भार को कम करने के लिए अपने संयुक्त शक्ति पुंज से इसी बरगद वृक्ष को उत्पन्न किया, तब से यह धरती पर विद्यमान है।
वैसे पुरातत्वविदों ने इस वृक्ष की रासायनिक उम्र 3250 ईसा पूर्व बताई जाती है। इसके अनुसार इसकी उम्र 3250+2025=5275 वर्ष हुआ।
ह्वेनसांग ने क्या लिखा
किंवदंतियों के अनुसार इस वृक्ष के दर्शन से हर मनोकामना पूरी हो जाती है। इसलिए इसे मनोरथ वृक्ष के नाम से भी जानते हैं। चीनी यात्री ह्वेनसांग 643 ईस्वी में प्रयाग आया था तो उसने अपने विवरणों में लिखा है कि नगर में एक देव मंदिर है जो अपनी सजावट और विलक्षण चमत्कारों के लिए प्रसिद्ध है। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि यहां एक पैसा चढ़ाने से ही इतना फल मिलता है जितना दूसरे तीर्थ स्थलों में सहस्र स्वर्ण मुद्रा चढ़ाने से, यहां आत्मघात द्वारा भी कोई अपने प्राण त्याग दे तो वह सदैव के लिए स्वर्ग चला जाता है। मंदिर के आंगन में एक विशाल वृक्ष है जिसकी शाखाएं और पत्तियां बड़े क्षेत्र तक फैली हुईं हैं।सप्ताह में दो दिन एक डाल का कराया जाता है दर्शन
अक्षय वट प्रयागराज के किले में स्थित है, यहां कड़ी सुरक्षा रहती है। श्रद्धालुओं को सप्ताह में दो दिन इसके एक डाल के दर्शन कराए जाते हैं।मान्यता है कि अक्षय वट के पास ही माता सीता ने गंगा की प्रार्थना की थी और जैन धर्म के पद्माचार्य की उपासना भी इसी वृक्ष के नीचे पूरी हुई थी। भगवान राम और महर्षि भारद्वाज इसी वटवृक्ष के नीचे कई रात सोये हैं। जैन ग्रंथों के अनुसार तीर्थंकर ऋषभदेव ने अक्षय वट के नीचे तपस्या की थी।
अक्षय वट को नुकसान पहुंचाने की कोशिश
अकबर का वृक्ष पर अटैक
मान्यता है कि समय-समय पर इस वृक्ष को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की गई, लेकिन हर बार यह फिर से खड़ा हो गया।किंवदंतियों के अनुसार अकबर ने इस वृक्ष और इससे लगे मंदिर के आसपास किला बनवाने की सोची तो इस वृक्ष को कटवा दिया और मंदिर को तोड़ दिया। लेकिन वृक्ष की जड़ों से फिर से पौधा निकल आया और वृक्ष बन गया।
कुछ अन्य मान्यताओं के अनुसार अकबर ने जब इस वृक्ष को कटवाया तो इसका तना पातालपुरी में स्थापित कर दिया गया। यहीं फिर से वट वृक्ष तैयार हो गया। सामान्यतः अब इसी वट वृक्ष का दर्शन कराया जाता है, जबकि मूल वृक्ष भी रानीमहल के आसपास ही कहीं मौजूद है।