आमलकी एकादशी पारण तिथिः 11 मार्च को सुबह 06:41 बजे से सुबह 08:13 बजे तक
पारण तिथि के दिन द्वादशी समाप्त होने का समयः सुबह 08:13 बजे तक
आइये पढ़ते हैं आमलकी एकादशी व्रत कथा(Amalaki Ekadashi Vrat Katha)
आमलकी यानी आंवला वृक्ष को शास्त्रों में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। आमलकी एकादशी व्रत कथा के अनुसार सृष्टि रचना के समय जब विष्णु जी से जब ब्रह्मा जी प्रकट हुए, उसी समय भगवान विष्णु ने आंवले के वृक्ष को भी जन्म दिया। आंवले को भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है। मान्यता है कि इसके हर अंग में ईश्वर का वास होता है। इस एकादशी में आंवला वृक्ष की पूजा की जाती है। आइये बताते हैं आमलकी व्रत कथा के बारे में
महर्षि वशिष्ठ ने सुनाई आमलकी एकादशी की कहानी
एक बार राजा मांधाता ऋषि वशिष्ठजी के पास पहुंचे और कहा कि हे महर्षि मुझसे किसी ऐसे व्रत की कथा कहिए जिससे मेरा कल्याण हो। महर्षि वशिष्ठ बोले कि हे राजन् सब व्रतों से उत्तम और अंत में मोक्ष देने वाले आमलकी एकादशी के व्रत के बारे में सुनिए। यह एकादशी फाल्गुन शुक्ल पक्ष में आती है। इस व्रत से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और इस व्रत का फल एक हजार गौदान के फल के बराबर होता है। अब कथा सुनिए …एक समय फाल्गुन शुक्ल पक्ष की आमलकी एकादशी आई। उस दिन राजा, प्रजा और बाल-वृद्ध सबने व्रत किया। राजा अपनी प्रजा के साथ मंदिर में जाकर पूर्ण कुंभ स्थापित करके धूप, दीप, नैवेद्य, पंचरत्न आदि से धात्री (आंवले) का पूजन करने लगे और इस प्रकार स्तुति करने लगे। प्रार्थना की कि,
हे धात्री! तुम ब्रह्मस्वरूप हो, तुम ब्रह्माजी द्वारा उत्पन्न हुए हो और समस्त पापों का नाश करने वाले हो, तुमको नमस्कार है। अब तुम मेरा अर्घ्य स्वीकार करो। तुम श्रीराम चंद्रजी द्वारा सम्मानित हो, मैं आपकी प्रार्थना करता हूं, अत: आप मेरे समस्त पापों का नाश करो। उस मंदिर में सब ने रात्रि को जागरण किया।
रात के समय वहां एक बहेलिया आया, जो अत्यंत पापी और दुराचारी था। वह अपने कुटुम्ब का पालन जीव-हत्या करके किया करता था। भूख और प्यास से पीड़ित वह बहेलिया इस जागरण को देखने के लिए मंदिर के एक कोने में बैठ गया और विष्णु भगवान और एकादशी माहात्म्य की कथा सुनने लगा। इस प्रकार अन्य मनुष्यों की भांति उसने भी सारी रात जागकर बिता दी।
सुबह होने पर सब लोग अपने घर चले गए तो बहेलिया भी अपने घर चला गया। घर जाकर उसने भोजन किया। कुछ समय बीतने के बाद उस बहेलिए की मृत्यु हो गई।
मगर उस आमलकी एकादशी के व्रत और जागरण से उसने राजा विदूरथ के घर जन्म लिया और उसका नाम वसुरथ रखा गया। युवा होने पर वह चतुरंगिनी सेना के सहित और धन-धान्य से युक्त होकर 10 हजार ग्रामों का पालन करने लगा।
वह तेज में सूर्य के समान, कांति में चंद्रमा के समान, वीरता में भगवान विष्णु के समान और क्षमा में पृथ्वी के समान था। वह अत्यंत धार्मिक, सत्यवादी, कर्मवीर और विष्णु भक्त था। वह प्रजा का समान भाव से पालन करता था। दान देना उसका रोज का काम था।
एक दिन राजा शिकार खेलने के लिए गया। दैवयोग से वह मार्ग भूल गया और दिशा ज्ञान न रहने के कारण उसी वन में एक वृक्ष के नीचे सो गया। थोड़ी देर बाद पहाड़ी म्लेच्छ वहां पर आ गए और राजा को अकेला देखकर मारो, मारो चिल्लाते हुए राजा की ओर दौड़े। म्लेच्छ कहने लगे कि इसी दुष्ट राजा ने हमारे माता, पिता, पुत्र, पौत्र आदि अनेक संबंधियों को मारा है और देश से निकाल दिया है अत: इसको अवश्य मारना चाहिए और यह कहते हुए हमला कर दिया।
लेकिन शत्रुओं के सब अस्त्र-शस्त्र राजा के शरीर पर गिरते ही नष्ट हो जाते और उनका वार पुष्प के समान प्रतीत होता। थोड़ी देर बाद म्लेच्छों के अस्त्र-शस्त्र उलटा उन्हीं पर प्रहार करने लगे जिससे वे मूर्छित होकर गिरने लगे। इसी समय राजा के शरीर से एक दिव्य स्त्री उत्पन्न हुई। वह स्त्री अत्यंत सुंदर होते हुए भी उसकी भृकुटी टेढ़ी थी, उसकी आंखों से लाल-लाल अग्नि निकल रही थी जिससे वह दूसरे काल के समान प्रतीत होती थी।