याचिकाकर्ता छत्तीसगढ़ पुलिस विभाग में कांस्टेबल के पद पर कार्यरत था। उसके खिलाफ दो आरोपों के लिए विभागीय जांच शुरू की गई थी। पहला आरोप था कि 6 फरवरी.2009 को वह अनधिकृत रूप से ग्राम खोराटोला गया और शिकायतकर्ता को एक कमरे में बंद कर दिया। उसने लकड़ी रखने के मामले में शिकायतकर्ता को गाली दी और जेल भिजवाने की धमकी देते हुए 5,000 रुपए की रिश्वत मांगी, जो एक भ्रष्ट आचरण था।
दूसरा, वह पुलिस स्टेशन में ड्यूटी से अनुपस्थित रहा, जो ड्यूटी में लापरवाही को दर्शाता है। इसलिए 12 मई 2009 को आरोप-पत्र जारी किया गया और याचिकाकर्ता के खिलाफ जांच की गई। जांच अधिकारी ने 30 दिसंबर 2009 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें आरोपों को सिद्ध माना गया। अत: अनुशासनिक प्राधिकारी ने 30 जनवरी 2010 को आदेश पारित कर याचिकाकर्ता को सेवा से हटा दिया।
जांच प्रक्रिया में खामियों का लगाया आरोप
याचिकाकर्ता ने पुलिस उपमहानिरीक्षक के समक्ष अपील प्रस्तुत की। लेकिन 17 मई 2010 के आदेश द्वारा इसे खारिज कर दिया गया। इसके बाद पुलिस महानिदेशक के समक्ष दया याचिका दायर की गई, जो खारिज कर दी गई। इसके बाद
हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई। सिंगल बेंच से 14 फरवरी 2024 को याचिका खारिज होने के बाद याचिकाकर्ता ने डिवीजन बेंच में रिट अपील दायर की।
उसने यह तर्क दिया कि जांच के दौरान जांच अधिकारी ने याचिकाकर्ता और गवाहों दोनों से जिरह करके अभियोजक की तरह काम किया, जो उनकी भूमिका से परे था। इसलिए जांच अनुचित और पक्षपातपूर्ण थी। याचिकाकर्ता को बचाव सहायक की सहायता प्राप्त करने के उसके अधिकार के बारे में कभी सूचित नहीं किया गया।
जांच अधिकारी और वरिष्ठ अधिकारी ने अपीलीय प्राधिकारी या पुनरीक्षण प्राधिकारी के रूप में कार्य करते हुए एक अर्ध न्यायिक कार्य किया, जिससे जांच में बाधा आई। याचिकाकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि आरोपों को साबित करने के लिए सबूतों या तर्क का उचित मूल्यांकन जांच में नहीं किया गया था।
जांच, कार्रवाई को नियमानुसार पाया
डिवीजन बेंच ने पाया कि जांच कार्यवाही छत्तीसगढ़ सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) नियम, 1966 के अनुसार की गई थी। यद्यपि याचिकाकर्ता को बचाव सहायक प्राप्त करने के अपने अधिकार के बारे में जानकारी नहीं थी, लेकिन एक प्रशिक्षित पुलिस कर्मी होने के नाते उसने प्रभावी ढंग से गवाहों से जिरह की और अपने बचाव में दस्तावेज प्रस्तुत किए, जिससे पता चला कि वह अपने कानूनी अधिकारों से अवगत था। यह पाया गया कि याचिकाकर्ता ने कार्यवाही के किसी भी चरण में कोई अनुरोध नहीं किया, और यह मुद्दा पहली बार न्यायालय के समक्ष उठाया गया, जो न्यायालय को कार्यवाही में खामियां खोजने जैसा प्रतीत हुआ।