Gangajal: गंगाजल पर वैज्ञानिक अध्ययन की शुरुआत
गंगाजल की शुद्धता का अध्ययन 1890 के दशक में शुरू हुआ, जब भारत में अकाल और हैजा जैसे रोगों का प्रकोप बढ़ा। इस दौरान प्रयागराज (तब इलाहाबाद) के माघ मेले में हैजा तेजी से फैला, और बड़ी संख्या में मौतें हुई। जिनके लाशों को गंगा में फेंका जाने लगा। बावजूद इसके, गंगा का पानी इस्तेमाल करने वाले कई लोग सुरक्षित रहे। ब्रिटिश वैज्ञानिक अर्नेस्ट हैन्किन, जो बैक्टीरिया पर शोध कर रहे थे, इसे देखकर आश्चर्यचकित हुए।
Gangajal में पाएं जाते हैं बैक्टीरिया को मारने वाले पदार्थ
हैन्किन ने गंगा के पानी के नमूनों का अध्ययन किया और पाया कि इसमें बैक्टीरिया का स्तर अपेक्षाकृत कम था, जबकि गंगा में स्नान, कचरा और शवों के प्रवाह के बावजूद इसका पानी रोग फैलाने वाला नहीं था। 1895 में प्रकाशित अपने शोध में उन्होंने बताया कि गंगाजल में एक ऐसा बैक्टीरिया मौजूद है, जो हैजे के बैक्टीरिया को खत्म कर सकता है। हैन्किन के बाद फ्रांसीसी वैज्ञानिकों ने भी गंगाजल पर अध्ययन किया। उन्होंने इसमें पाए जाने वाले वायरसों की पहचान की, जो बैक्टीरिया को खत्म कर सकते थे। इन वायरसों को “निंजा वायरस” कहा गया। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, गंगा के पानी में करीब 1000 प्रकार के बैक्टीरियोफेज पाए जाते हैं, जो बैक्टीरिया को नष्ट करने वाले वायरस होते हैं।
Gangajal का महत्त्व
दुनियाभर में गंगा जल का महत्व धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी बहुत अधिक है। हिंदू धर्म में गंगा नदी को देवी माना जाता है। गंगा को लेकर ऐसी मान्यता है कि गंगा जल में स्नान करने और इसे घर में रखने से पापों का नाश होता है। गंगाजल का प्रयोग पूजा-पाठ, यज्ञ, और धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है।
Gangajal: गंगाजल की विशेषताएं
गंगाजल में अन्य नदियों की तुलना में अधिक बैक्टीरियोफेज और सल्फर पाया जाता है। यही कारण है कि यह लंबे समय तक खराब नहीं होता। इसके अलावा, गंगा का पानी वायुमंडल से ऑक्सीजन सोखने की अधिक क्षमता रखता है और 20 गुना ज्यादा गंदगी को सोखता है। अन्य नदियों, जैसे यमुना या नर्मदा, में बैक्टीरियोफेज की संख्या गंगा से अपेक्षाकृत कम होती है, जिससे उनका पानी जल्दी खराब हो सकता है।