उत्तर प्रदेश में पग-पग पर बदलती और बोली और होली, हर क्षेत्र में एक अलग रंग और परंपरा
“चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर वाणी, बीस कोस पर पगड़ी बदले, तीस कोस पर धानी”। आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामहा भारतेंदु हरिश्चंद ने ये बात यूं ही नहीं कही। बोली और पानी के साथ संस्कृति और त्यौहार की परम्पराएं भी बदल जाती है। उत्तर प्रदेश में रंगों के त्योहार होली की बात ही निराली है।
उत्तर प्रदेश की होली विदेशों तक प्रसिद्ध है। चाहे पूर्वी उत्तर प्रदेश हो या पश्चिमी उत्तर प्रदेश। बुंदेलखंड हो या अवध या फिर बृज मंडल। हर इलाके में होली का अपना ही महत्व है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश: मर्यादा और लोकगीतों की होली
होली हो और लोकगीत न हो तो यह पर्व अधूरा हो जाता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोकगीत की परंपरा होली को और भी खास बना देती है। होली के अवसर पर यहां के लोकगीत हर गली और चौराहे पर गूंजते हैं। पूर्वी यूपी में होली को राम की मर्यादा और कृष्ण की लीला के दो रूपों में देखा जाता है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खास तौर पर बृज मंडल में होली का पर्व बड़े ही उल्लास और नटखटपन के साथ मनाया जाता है। यहां की होली कृष्ण की लीलाओं से प्रेरित है। गोपियों के साथ अठखेलियां और प्रेम के रंग में रंगी होली राधा कृष्ण के उस अटूट प्रेम और स्नेह का प्रमाण देती है, जो आज के कलयुग में भी जीवित है। फूलों की होली, लट्ठमार होली और लड्डू होली देश ही नहीं विदेश में भी विख्यात है।
काशी की अनोखी मसान होली
वाराणसी में होली की शुरुआत महाशिवरात्रि पर बाबा काशी विश्वनाथ को अबीर-गुलाल अर्पित करने से होती है। इसके बाद रंगभरी एकादशी पर बाबा विश्वनाथ मां गौरा का गौना लेकर निकलते हैं और भक्तों संग होली खेलते हैं। यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है और हर साल इसमें लाखों श्रद्धालु शामिल होते हैं। इसके अगले दिन काशी के मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर अघोरियों और घाटवासियों द्वारा “मसान की होली” खेली जाती है। जलती चिताओं के बीच चिता भस्म से खेली जाने वाली यह अनोखी होली बीते कुछ वर्षों में काफी प्रसिद्ध हो चुकी है। मोक्ष की नगरी काशी में मृत्यु और जीवन के इस संगम को देखने के लिए देश-विदेश से लोग जुटते हैं।
राधा-कृष्ण के प्रेम में रसी बृज की होली
बृज की होली सिर्फ रंगों का उत्सव नहीं, बल्कि प्रेम, भक्ति और रास का अद्भुत संगम है। जब फागुन की बयार बहती है, तो मथुरा-वृंदावन की गलियों में राधा-कृष्ण का प्रेम सजीव हो उठता है। कहते हैं, नटखट कान्हा बालपन में मां यशोदा से शिकायत करते थे कि राधा गोरी क्यों और वे सांवले क्यों? हंसते हुए माता ने कान्हा को गुलाल पकड़ा दिया- “जा, राधा को भी अपने रंग में रंग दे!” तभी से बृज की होली प्रेम का प्रतीक बन गई। मथुरा-वृंदावन में होली की धूम पूरे 16 दिन तक रहती है। रासिया गाए जाते हैं, गुलाल उड़ता है, और कान्हा की गलियों में भक्त भाव-विभोर होकर झूम उठते हैं। वहीं, बरसाने में कृष्ण के सखाओं को राधा की सखियां लट्ठ से मारती हैं और ये लीलाएं प्रेम की मस्ती में भीगे कन्हैया के दिनों को याद दिलाती हैं। नंदगांव-बरसाने की इस लट्ठमार होली को देखने देश-विदेश से लोग उमड़ पड़ते हैं।
प्रयागराज में लोकनाथ की मशहूर होली
प्रयागराज में तीन दिन तक होली मनाई जाती है। पहले दिन रंग-गुलाल उड़ाकर बाकी शहरों की तरह होली मनाई जाती है तो दूसरे दिन रंग गुलाल के साथ ही कपड़ा फाड़ होली मनाने की परंपरा है। युवाओं की टोली लोकनाथ चौराहा, जानसेनगंज, कटरा, दारागंज, अलोपीबाग, झूंसी, नैनी, फाफामऊ, राजरूपपुर सहित हर मोहल्ले के चौराहे पर जुटती है। एक-दूसरे का कपड़ा फाड़कर हवा में लहराते हैं जो कि परंपरा का हिस्सा माना जाता है।
गोरखपुर की ऐतिहासिक नरसिंह शोभायात्रा
गोरखपुर की होली की पहचान नरसिंह शोभायात्रा है, जो बीते आठ दशकों से अपनी भव्यता के लिए जानी जाती है। 1944 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक नानाजी देशमुख ने इसे एक नई दिशा दी, जिससे होली के दौरान फूहड़ता खत्म हुई। लेकिन इसे भव्यता तब मिली जब गोरक्षपीठ के महंत दिग्विजयनाथ और उनके उत्तराधिकारी महंत अवेद्यनाथ ने इसका नेतृत्व संभाला। 1998 से योगी आदित्यनाथ के निर्देशन में यह शोभायात्रा और भव्य होती चली गई। उनके उत्साह और बढ़ती लोकप्रियता के कारण इस आयोजन को देशभर में पहचान मिली। आज, इस शोभायात्रा में हजारों श्रद्धालु शामिल होते हैं, जो इसे गोरखपुर की होली का सबसे खास आयोजन बनाते हैं।
बुंदेलखंड: यहीं से हुई होली की शुरुआत
बुंदेलखंड के झांसी जनपद में एरच धाम हिरण्यकश्यप की राजधानी एरिकेच्छ के रूप में जाना जाता था। यहीं होलिका ने भक्त प्रहलाद को गोद में बैठाकर जलाने की कोशिश की थी। जिसके बाद होली की परंपरा की शुरुआत हुई। बुंदेलखंड के इस हिस्से में युवा रात में कीचड़ और धूल की होली खेलते हैं और दूसरे दिन कीचड़, गोबर, धूल की होली के साथ ही मिट्टी के साथ होली खेलने की परंपरा है।
चित्रकूट जनपथ स्थित सुमेरपुर के कुंडौरा गांव में आज भी सैंकड़ो साल पुरानी परंपरा का निर्वहन किया जाता है। यहां पूरे गांव की महिलाएं राम जानकी मंदिर से बारात निकालकर होली का आयोजन करती हैं और इस दौरान गांव में पुरुषों की एंट्री बैन होती है। फिर महिलाएं होली का आनंद लेती हैं।
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