क्या है मामला?
यह मामला 2012 में विवाहित एक दंपति से संबंधित है, जहां पत्नी ने घरेलू दुर्व्यवहार का हवाला देते हुए खुला के माध्यम से तलाक की मांग की थी। पति द्वारा सहमति देने से इनकार करने पर पत्नी ने इस्लामी विद्वानों की सलाहकार संस्था से संपर्क किया, जिसने सुलह के प्रयास किए। हालांकि, सुलह विफल होने पर पत्नी ने फैमिली कोर्ट में खुला की मांग की, जिसे मंजूर कर लिया गया। पति ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी, लेकिन जस्टिस मौसमी भट्टाचार्य और जस्टिस मधुसूदन राव की बेंच ने फैमिली कोर्ट के आदेश को बरकरार रखते हुए पति की अपील खारिज कर दी।
कोर्ट का फैसला
हाईकोर्ट ने कहा कि खुला इस्लामी कानून के तहत तलाक का एक मान्य रूप है, जिसमें महिला स्वयं विवाह विच्छेद की पहल कर सकती है, और इसके लिए उसे पति की अनुमति की जरूरत नहीं है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि खुला की प्रक्रिया को सरल और संक्षिप्त रखा जाना चाहिए। अदालत ने जोर दिया कि जैसे पुरुष को एकतरफा तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) का अधिकार है, वैसे ही खुला मुस्लिम महिलाओं का समान अधिकार है।
कोर्ट ने दी मध्यस्ता की सलाह
कोर्ट ने यह भी कहा कि धार्मिक संस्थाएं या मुफ्ती सुलह में मध्यस्थता कर सकते हैं, लेकिन उनके पास बाध्यकारी तलाक प्रमाणपत्र (खुलानामा) जारी करने का कानूनी अधिकार नहीं है। खुला की वैधता की पुष्टि केवल कोर्ट ही कर सकता है।
खुला मांग वैध
पीठ ने अपने फैसले में कहा, “एक बार जब महिला विवाह समाप्त करने की इच्छा व्यक्त करती है और सुलह के प्रयास विफल हो जाते हैं, तो पति के विरोध के बावजूद तलाक प्रभावी हो जाता है।” कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि खुला के लिए मुफ्ती या धार्मिक परिषद से प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है, और फैमिली कोर्ट का काम केवल यह सुनिश्चित करना है कि खुला की मांग वैध है।
महिलाओं के अधिकारों की दिशा में बड़ा कदम
इस फैसले को मुस्लिम महिलाओं के लिए एक बड़ी जीत के रूप में देखा जा रहा है। यह न केवल उनके तलाक के अधिकार को मजबूत करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि इस प्रक्रिया में पति की सहमति या धार्मिक संस्थाओं का हस्तक्षेप अनावश्यक है।