अमरीका के लिए डॉलर की मजबूती ‘अत्यधिक बोझ’ है?
रघुराम राजन, भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर एवं आइएमएफ के चीफ इकोनोमिस्ट


एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ने एक बार मुझसे कहा था कि वृहद आर्थिक नीति संबंधी बहसें मुख्य रूप से उस प्राथमिक कारक को लेकर होती हैं, जिससे अन्य कारक प्रभावित होते हैं। इसका तात्पर्य यह था कि ‘आप केवल एक अलग प्रेरक कारक को प्रमुख बताकर नीतिगत सुझावों को उलट सकते हैं।’ अमरीकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख के रूप में नामित स्टीफन मिरन के एक शोध पत्र में ठीक यही किया गया है। चूंकि उनके विचार प्रशासन की नीतियों को दर्शाते हैं, इसलिए वे गहराई से विश्लेषण योग्य हैं।
पारंपरिक दृष्टिकोण कहता है कि अमरीका को बाध्यकारी कारक के रूप में अक्सर व्यापार घाटे का सामना करना पड़ता है यानी वह निर्यात से ज्यादा आयात करता है। आमतौर पर इसकी वजह अमरीका का अधिक उपभोग माना जाता है। लेकिन मिरन का तर्क है कि असली बाध्यकारी कारक अमरीका की वित्तीय संपत्तियों, विशेषकर ट्रेजरी बॉन्ड्स के प्रति शेष विश्व की भूख है। विदेशी निवेशक अपने विदेशी मुद्रा भंडार और वित्तीय लेन-देन के लिए भारी मात्रा में ट्रेजरी बॉन्ड्स खरीदते हैं और इस मांग को पूरा करने के लिए अमरीका को बड़े राजकोषीय घाटे चलाने पड़ते हैं। इस पूंजी प्रवाह के परिणाम स्वरूप डॉलर की कीमत अधिक बनी रहती है, जिससे अमरीकी निर्यातकों की प्रतिस्पर्धात्मकता घट जाती है और व्यापार घाटा बना रहता है। यह तर्क कई कारणों से अविश्वसनीय लगता है। सबसे पहले, समय-सीमा पर गौर करें। अमरीका का व्यापार घाटा 1970 के दशक से शुरू हुआ और लगभग उसी समय से उसने राजकोषीय घाटा भी झेलना शुरू किया। लेकिन विदेशी मुल्कों ने 1997 के एशियाई वित्तीय संकट के बाद अधिक मात्रा में अमरीकी डॉलर जमा करना शुरू किए। अगर विदेशी निवेश ही असली कारण होता तो व्यापार घाटा इससे पहले नहीं होना चाहिए था। इसके अलावा, अमरीका का व्यापार घाटा असमान है। वस्तुओं में अमरीका को व्यापार घाटा होता है, जबकि सेवाओं में उसे लगभग 300 अरब डॉलर (2024 में) का शुद्ध अधिशेष होता है।
अर्थशास्त्रियों के अनुसार इस प्रकार की असमानता तुलनात्मक लाभ का संकेत हैं, जिससे अमरीका को लाभ होता है। उदाहरणार्थ, एप्पल कंपनी उच्च लाभ मार्जिन के साथ दुनियाभर में आईफोन और उसके सॉफ्टवेयर बेचती है, जबकि फॉक्सकॉन चीन और भारत में आईफोन बनाने के लिए बहुत कम मुनाफा कमाती है। भले ही कुल व्यापार घाटा बड़ा दिखाई दे, अमरीका को इससे कोई विशेष नुकसान नहीं होता। मिरन के तर्क की एक और समस्या यह है कि यदि विश्वभर से अमरीकी ट्रेजरी बॉन्ड्स की मांग बहुत अधिक होती तो अमरीकी बॉन्ड्स पर ब्याज दरों में भारी कमी आनी चाहिए थी। लेकिन मिरन खुद शिकायत करते हैं कि अमरीकी बॉन्ड्स पर ब्याज दरों में ऐसा कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखता, जिससे अमरीका को उच्च मांग वाली वित्तीय संपत्तियों के उत्पादन का कोई विशेष लाभ नहीं मिल रहा।
यह एक विरोधाभास है- अगर यह मांग डॉलर को ऊंचा बनाए रख सकती है तो फिर यह अमरीकी बॉन्ड्स की ब्याज दरों को क्यों नहीं गिरा पाती? असल में अमरीकी सरकार मनमाना खर्च करती है और राजस्व घाटे की पूर्ति के लिए शेष दुनिया द्वारा ट्रेजरी बॉन्ड्स खरीदने पर निर्भर है। क्या कभी किसी अमरीकी सांसद ने यह कहा है कि अमरीका को केवल इसलिए घाटा उठाना चाहिए ताकि विदेशी निवेशक ट्रेजरी बॉन्ड्स खरीद सकें? यदि अमरीकी वित्तीय संपत्तियों की अत्यधिक मांग वास्तव में कोई समस्या होती तो अमरीकी कांग्रेस आसानी से घाटा कम कर सकती थी, जिससे विदेशी निवेशक सीमित ट्रेजरी बॉन्ड्स के लिए होड़ लगाते और अमरीका को कम ब्याज दरों का लाभ मिलता। इसके अलावा, यदि अमरीकी डॉलर की मांग बनाए रखना वास्तव में भारी बोझ है तो अमरीका अन्य देशों पर भी यह बोझ क्यों नहीं डालता? इसके बजाय, ट्रंप प्रशासन ने ब्रिक्स समूह को डॉलर से अलग भुगतान व्यवस्था के लिए सोचने पर भी धमकाया। मिरन का विश्लेषण यह समझाने की कोशिश करता है कि अमरीका अपने ही बनाए सिस्टम से नाखुश क्यों है। निश्चित रूप से, अमरीकी वित्तीय घाटा एकमात्र बाध्यकारी कारक नहीं है। यह स्पष्ट नहीं है कि ट्रंप प्रशासन का यह ‘शॉक एंड ऑ’ दृष्टिकोण आखिरकार कहां ले जाएगा। डॉलर की मजबूती को ‘अत्यधिक बोझ’ बताने का तर्क अविश्वसनीय है, खासकर जब वे इसे छोडऩे के लिए तैयार ही नहीं हैं। यदि इस नीति के कारण डॉलर की वैश्विक स्वीकार्यता घटती है तो यह वास्तव में अमरीका के लिए एक भारी बोझ बन सकता है- यह ऐसा भविष्य है, जिसे कोई भी अमरीकी नहीं चाहेगा।
(सह-लेखक रोहित लांबा के साथ)
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