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आखिर कैसे किया जा सकता है ड्रैगन पर भरोसा?

डॉ. रहीस सिंह, अन्तरराष्ट्रीय और आर्थिक मामलों के जानकार

जयपुरMar 11, 2025 / 02:09 pm

Neeru Yadav

अमरीका द्वारा शुरू किए गए टैरिफ वॉर से दुनिया में खिंच रही विभाजक रेखाओं के बीच चीन यह कहते हुए दिख रहा है कि हाथी और ड्रैगन का नृत्य (डांस) यानी कदम से कदम मिलाकर चलना ही दोनों पक्षों के लिए उचित विकल्प (करेक्ट चॉइस) है। चीन के विदेश मंत्री वांग यी ये भी कहते हैं कि ड्रैगन-हाथी मिलकर दुनिया बदल सकते हैं। उनके इस कथन पर संशय नहीं है परन्तु चीनी इतिहास और चरित्र को देखते हुए उसकी दोस्ती के पैगाम पर भरोसा करना मुश्किल होगा। फिर चीन के बदले हुए सुरों को किस तरह से देखा जाना चाहिए? यही कि बीजिंग और वाशिंगटन के बीच उभरते आर्थिक तनावों के बीच उसका दिल्ली की ओर देखना उसकी बाजार आधारित आवश्यकताओं से प्रेरित है या भारत के हितों के प्रति चिंता आधारित? यह चीन की मनोदशा बदलाव का संकेत है अथवा भारत के बाजार में निर्बाध रूप से पांव पसारने की एक युक्ति?
विगत दिनों चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने अपने वक्तव्य में कुछ बातें कही, जो ध्यान देने योग्य हैं। पहली यह कि चीन और भारत को एक-दूसरे के खिलाफ सुरक्षा बनाने के बजाय मिलकर काम करना, यही वह रास्ता है जिसकी आवश्यकता है। दूसरी- जब चीन और भारत साथ आएंगे, तो अंतरराष्ट्रीय संबंधों में लोकतंत्र और मजबूत होगा। तीसरी-भारत और चीन ‘एक-दूसरे’ के सबसे बड़े पड़ोसी हैं। इसलिए दोनों को ऐसा साझेदार होना चाहिए जो एक दूसरे की सफलता में योगदान दें। चीन कहता है कि दोनों देशों को एक साथ मिलकर काम करना चाहिए, यह भारत के पंचशील सिद्धांत के अनुरूप है, जिसमें शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की बात की गई है। लेकिन क्या चीन ने कभी शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का पालन किया? इसका बहुत छोटा सा उत्तर है-नहीं। फिर आज ऐसा क्या हो गया कि चीन को भारत से मैत्री संबंध मजबूत करने की याद आने लगी। हां, यदि दोनों देश करीब आते हैं तो नई विश्वव्यवस्था में एशिया निर्णायक भूमिका में आ जाएगा और भारत नेतृत्व की। लेकिन यदि चीन यह कहता है कि इससे अंतरराष्ट्रीय संबंधों में लोकतंत्र और मजबूत होगा तो यह हास्यास्पद बात है।
चीन स्वयं लोकतंत्र विरोधी है फिर वह अंतरराष्ट्रीय संबंधों में लोकतंत्र को मजबूत करने में कौन-सी भूमिका निभाएगा। इससे दुनिया अवगत है। वांग यी कहते हैं कि इस साल भारत-चीन कूटनीतिक संबंधों की 75वीं वर्षगांठ है। इसलिए चीन यह इच्छा रखता है कि वह पूर्व के अनुभवों पर आधारित भविष्य के सहयोग (फ्यूचर इंगेजमेंट्स) के लिए नई संभावनाओं के द्वार खोले। लेकिन 1960 के दशक से 21वीं सदी के पिछले दो दशकों तक चीन ने भारत को लेकर ऐसे कौन-से कदम उठाए जिसमें नई संभावनाओं के दौर खुलते दिखे हों। डोकलाम और गलवान जैसी घटनाएं ऐसी किसी संभावना के पक्ष में नहीं दिखतीं। उसने स्ट्रिंग ऑफ पल्र्स, न्यू मैरीटाइम सिल्क रूट अथवा बेल्ट एंड रूट इनीशिएटिव के तहत हिन्द महासागर में एक ऐसी स्ट्रिंग तैयार की, जो भारत को घेरने का काम करती हो और उत्तर की तरफ काश्गर से ग्वादर तक ‘चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर बनाकर भारत को भू-राजनीतिक दृष्टि से घेरने की कोशिश की है। पाकिस्तान का वह सदाबहार मित्र (ऑल व्हेदर फ्रेंड) है और पाकिस्तान भारत से निरंतर एक छद्म युद्ध लड़ रहा है। वैश्विक संस्थाओं में भी वह भारत की बजाय पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखता है। फिर किस मित्रता की बात चीन कर रहा है? दरअसल चीन की भू-राजनीतिक (जियो-पॉलिटिकल) और भू-आर्थिक (जियो-इकोनॉमिक) रणनीति उस गैप को भरने की कोशिश रहती है, जो अमरीकी नीतियों के कारण दुनिया के किसी भी क्षेत्र में निर्मित हो रहा है। इससे उसे दो फायदे हो सकते हैं। पहला यह कि उसे अपनी महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप आगे बढऩे का अवसर मिल जाएगा और द्वितीय- वह अमरीका को काउंटर करने के लिए अपनी शक्ति का विस्तार करने में सफल हो जाएगा।
चीन इस रणनीति में बहुत हद तक सफल भी रहा है। आज मध्य-पूर्व के अधिकांश देश अमरीका के बजाय चीन की तरफ सरकते हुए नजर आ रहे हैं। हालांकि उसकी यह कोशिश केवल मध्य-पूर्व तक ही सीमित नहीं है, बल्कि ग्लोबल साउथ तक जाती है जिसके नेतृत्व का दावा भारत करता है। एक बात और, नई ट्रंप रेजीम की शुरूआत के साथ ही अमरीका कुछ ऐसा कदम उठा रहा है, जो चीन के लिए नए अवसर साबित हो सकते हैं। लेकिन इन अवसरों का लाभ वह अकेले अपने दम पर नहीं उठा पाएगा। इसके लिए उसे भारत सहित कुछ अन्य एशियाई और अफ्रीकी देशों का साथ चाहिए। भारत की तरफ उसके इस नए झुकाव को इसी चश्मे से देखने की जरूरत है। यद्यपि पिछले कुछ समय से भारत की तरफ से भी चीन के प्रति कुछ साफ्ट होने के संकेत हो सकते हैं। जैसे 22-24 अक्टूबर 2024 को 16वीं ब्रिक्स समिट (कजान; रूस) में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात के दौरान संबंधों में सुधार के लिए स्ट्रैटेजिक दिशा-निर्देशों का दिए जाना। इसी वर्ष जोहान्सबर्ग (दक्षिण अफ्रीका) में जी-20 विदेश मंत्रियों की बैठक में विदेश मंत्री एस जयशंकर और चीनी समकक्ष वांग यी की मुलाकात तथा भारत और चीन के बीच आपसी विश्वास को बहाल करने और दोनों देशों के लिए ‘विन-विन कोऑपरेशन’ के लिए चर्चा का होना। इसमें कोई संशय नहीं है कि इन गतिविधियों के कारण पूर्वी लद्दाख में 4 वर्षों से चल रहे सैन्य गतिरोध के पिछले वर्ष समाप्त होने के बाद सभी स्तरों पर उत्साहजनक नतीजे दिख रहे हैं लेकिन फिर भी चीन का इतिहास उस पर भरोसा करने से रोकता है। दरअसल चीन खुद को एशिया का लीडर मानता है और इस विचार को वह सभी एशियाई राष्ट्रों पर थोपने की निरंतर कोशिश भी कर रहा है। लेकिन भारत उसे एशिया का नेता नहीं मानता। यह बात चीन को अखरती रहती है। यह आज की बात नहीं है। 1962 में हुए चीन-युद्ध के कारणों में एक यह कारण भी था। डोकलाम भी इसी का परिणाम था और गलवान भी। वैसे चीन ने पिछले सात दशकों में कभी कोई ऐसा उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया जिसे हम ‘पवित्र दोस्ती’ की नजर से देख सकें, उसकी गतिविधियों में ‘घृणा-प्रेम’ का मनोविज्ञान ज्यादा दिखा।
बहरहाल आज की दुनिया कई तरह के टकरावों से गुजर रही है। चीन इसी के बीच से अपनी प्रगति का रास्ता चुनना चाहता है। लेकिन यदि वह भारत के साथ तनातनी रखता है तो उसकी प्रगति की राह प्रभावित होगी जबकि भारत से दोस्ती इसे आसान बनाएगी। चीन के बदले हुए सुर इन्हीं अपेक्षाओं और आवश्यकताओं की देन हैं। इसलिए चीन के साथ आगे बढऩे से पहले इतिहास के उन अध्यायों को सामने रखने की जरूरत होगी जो उसके अविश्वासी चरित्र और गतिविधियों से सम्पन्न हैं।

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