सम्पादकीय : सस्ती दवाओं का फायदा सीधे मरीजों तक पहुंचे
जेनेरिक दवाएं इनका विकल्प हो सकती हैं, लेकिन शिकायतें आम हैं कि डॉक्टरों और दवा कंपनियों की मिलीभगत के कारण जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता बढ़ नहीं पा रही है।


भारत में कैंसर और एचआइवी जैसी गंभीर बीमारियों की बेहद महंगी दवाएं बड़ी समस्या बनी हुई हैं। इनमें से कुछ दवाओं की एक डोज ही लाखों रुपए की है। ये दवाएं कमजोर और गरीब तबकों की पहुंच के बाहर हैं। जेनेरिक दवाएं इनका विकल्प हो सकती हैं, लेकिन शिकायतें आम हैं कि डॉक्टरों और दवा कंपनियों की मिलीभगत के कारण जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता बढ़ नहीं पा रही है। इसी साल अप्रेल में दवाओं की कीमतों से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि डॉक्टर सिर्फ जेनेरिक दवाएं लिखें तो मरीजों पर अनावश्यक बोझ डालने पर अंकुश लगाया जा सकता है।
जेनेरिक दवाओं के मुद्दे से इतर अब सरकार गंभीर बीमारियों की करीब 200 दवाएं सस्ती करने की तैयारी में है। ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआइ) के एक पैनल ने इनमें से कुछ दवाओं पर कस्टम ड्यूटी पूरी तरह हटाने और बाकी पर घटाकर पांच फीसदी करने की सिफारिश की है। अगर सिफारिश मंजूर की जाती है तो गंभीर बीमारियों के मरीजों को बड़ी राहत मिलेगी। सरकार ने इससे पहले 2016 में कैंसर, मधुमेह, विषाणु संक्रमण और उच्च रक्तचाप जैसी कई गंभीर बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल होने वाली 56 दवाओं की कीमतों की सीमा तय की थी। इससे दवाओं की कीमतें 25 फीसदी तक घट गई थीं। फिर भी समय-समय पर दवाओं की ऊंची कीमतों को लेकर सवाल उठते रहे हैं। सवाल यह भी है कि अपेक्षाकृत सस्ती जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता बढ़ाने पर ध्यान क्यों नहीं दिया जा रहा है? भारतीय चिकित्सा परिषद ने 2013 में दिशा-निर्देश जारी किए थे कि जहां तक संभव हो, डॉक्टर जेनेरिक दवाएं लिखें। इस पर अमल होता तो गंभीर बीमारियों का इलाज सस्ता हो सकता था। जेनेरिक दवाओं पर सुनियोजित अभियान की दरकार है। समान गुणवत्ता और असर वाली जेनेरिक दवाओं के प्रति लोगों को भी जागरूक किया जाना चाहिए। कई डॉक्टर जेनेरिक दवाओं के बदले उन बड़ी कंपनियों की दवाएं लिखते हैं, जिनसे उन्हें कमीशन, उपहार और दूसरी सुविधाएं मिलती हैं। चिकित्सा क्षेत्र की इस परिपाटी के निदान के लिए सरकार समय-समय पर कदम उठाती रही है, लेकिन जमीनी स्तर पर ठोस नतीजे देखने को नहीं मिलते।
गंभीर बीमारियों की 200 दवाओं पर कस्टम ड्यूटी हटाने या घटाने के बाद सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि इसका सीधा फायदा मरीजों को मिले। अक्सर देखा गया है कि सस्ती दवाओं के विपणन में दवा कंपनियां ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखातीं। अगर एक ब्रांड की दवा सस्ती होती है तो वे उसी रासायनिक मिश्रण वाले दूसरे ब्रांड का विपणन शुरू कर देती हैं, जो महंगा हो। कंपनियों और डॉक्टरों का गठजोड़ सस्ती दवाएं मरीजों तक नहीं पहुंचने देता। ऐसे निगरानी तंत्र की दरकार है, जो मरीजों के हित में इस गठजोड़ की मनमानी पर अंकुश रखे।
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