सोशल मीडिया पर दिखती सफलताओं की चमक और ‘जल्दी अमीर बनने’ का सपना आम लोगों को आकर्षित करता है, पर जब बिना समझे लिए गए निर्णय घाटे में बदलते हैं, तो केवल पैसा नहीं, मानसिक संतुलन भी डगमगा जाता है। नुकसान की भरपाई के लिए फिर से कर्ज लिया जाता है और व्यक्ति एक अंतहीन चक्र में फंस जाता है- जहां केवल थकान, तनाव और निराशा शेष रह जाती है। दरअसल, बात केवल आर्थिक तंगी की नहीं है, बल्कि उस मानसिक स्थिति की है जिसमें व्यक्ति को यह महसूस होता है अथवा महसूस कराया जाता है कि बिना ‘अपडेटेड’ जीवनशैली के उसकी सामाजिक पहचान अधूरी है। जैसे कि बच्चों का स्कूल एक शैक्षणिक विकल्प नहीं, स्टेटस सिंबल है। शादी-ब्याह और त्योहार अब केवल सांस्कृतिक आयोजन नहीं, बल्कि ऋण प्रायोजित सामाजिक प्रदर्शन बन चुके हैं। जब दिखावा जरूरत बन जाता है, तो खर्च स्वाभाविक रूप से आमदनी से आगे निकल जाता है, और फिर आता है कर्ज, जो खुद को ‘सहारा’ बताकर दरवाजे पर खड़ा मिलता है- ‘प्री-अप्रूव्ड लिमिट’, ‘जीरो डाउन पेमेंट’, और कुछ घंटों में ट्रांसफर होने वाले डिजिटल लोन आदि जैसे कई विकल्पों के रूप में। ये विकल्प पहली नजर में सहूलियत लगते हैं, लेकिन असल में वे मानसिक जाल हैं जिनमें व्यक्ति फंसता चला जाता है। और जब किश्तें देना मुश्किल हो जाता है, तो केवल बजट नहीं, आत्म-सम्मान, मानसिक स्वास्थ्य और पारिवारिक संतुलन भी दरकने लगते हैं। अंतत: यह त्रासदी जन्म लेती है- जब व्यक्ति अकेलेपन, शर्म और सामाजिक तुलना के बीच घिरकर कोई भी कठोर कदम उठाने को विवश हो जाता है। दुखद केवल यह नहीं कि लोग आत्महत्या कर रहे हैं। उससे भी अधिक दुखद यह है कि समाज ने इसे ‘निजी विफलता’ मानकर किनारे कर दिया है। लेकिन यह एक गहरी प्रणालीगत असफलता है- एक ऐसा सामाजिक ढांचा, जो बार-बार व्यक्ति से कहता है- ‘और बेहतर दिखो, और आगे बढ़ो’, चाहे वह भीतर से टूटता ही क्यों न जाए। विडंबना यह है कि सादगी को ‘कमजोरी’ और दिखावे को ‘सफलता’ का पैमाना बनाया जाने लगा है। सामथ्र्य से ऊपर जाने पर ढूंढे जाते हैं आसान ऋण के विकल्प। ऐसे में जब ऋण के नाम पर शोषण की संभावनाएं खुली हों, तो पूरी जिम्मेदारी सिर्फ एक व्यक्ति की विवेकशीलता पर डालना उचित नहीं। फिलहाल इसका कोई तात्कालिक समाधान नहीं है, लेकिन शुरुआत इस स्वीकारोक्ति से हो सकती है कि कर्ज की समस्या अब वित्तीय नहीं रही- यह सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य का प्रश्न बन चुकी है। हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि दिखावे की यह दौड़ कई लोगों को धीरे-धीरे ऐसे निर्णयों की ओर धकेल रही है, जिनसे वापस लौटना कठिन होता है। किसी व्यक्ति की इज्जत उसके खर्च से नहीं, उसकी सादगी और संतुलन से बनती है। हर व्यक्ति को यह सोचना चाहिए कि जो खर्च वह कर रहा है, वह वाकई जरूरत है या सामाजिक भय का परिणाम जोकि उसके जीवन में जहर घोल रहा है।