‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥’ (गीता 2/41) कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है और अस्थिर विचार वाले विवेकहीन लोगों की बुद्धि अनेक प्रकार की होती है। चारों ओर अस्थिर मीडिया के वातावरण को पहचानकर और मीडिया की आत्मा को मूर्छित देखकर ही श्रद्धेय बाबूसा ने निश्चयात्मिका बुद्धि से ही निर्णय लिया था कि वे पत्रकारिता की आत्मा को जगाए रखने के लिए स्वतंत्र समाचार-पत्र निकालेंगे। वही आज तक पत्रकारिता का मूल बिम्ब बने हुए हैं। उनके लेखन और व्यक्तित्व को प्राप्त उपलब्धियां भी उसी निर्णय के स्थायित्व का प्रमाण हैं। श्रद्धेय बाबूसा के सम्पूर्ण जीवन ने और यहां तक कि उनके वैदिक अवदान ने उनके संकल्प को परिभाषित किया।
व्यक्ति के जीवन के उतार-चढ़ाव, राजनीतिक शतरंज की चालबाजियां, सामाजिक परिवर्तन का प्रवाह और व्यापारिक द्वन्द्वों के बीच निर्णय को बनाए रखना एक प्रकार की अग्नि-परीक्षा ही थी, जो उनके सम्पूर्ण कार्यकाल में बनी रही। अभाव की स्थिति में तो विपरीत प्रभाव से संघर्ष करना व्यवसाय की सुरक्षा के लिए एक कठोर भी और संवेदना का भी विचलित कर देने वाला क्षण होता है। मैंने उस जीवन में द्वन्द्व के उन क्षणों को भी जीया है।
उनकी सबसे बड़ी पूंजी पाठकों का विश्वास रहा और कर्मचारियों का पारिवारिक स्वरूप रहा। पाठकों में विश्वास भी बना रहे और बदलते समय के साथ भारतीय मूल्यों को भी संजोकर रखा जा सके, ये उनकी प्राथमिकताएं थी। खबरों की स्वतंत्रता में आज तक सम्पादकों-रिपोर्टरों को कोई दिशा- निर्देश अथवा निषेधात्मक आदेश नहीं दिया जाता। साथ ही उनकी अवहेलना, चूक या अपराध को क्षमा भी नहीं किया जाता। ‘संभावना’ दिखाने वाले समाचारों पर पूर्ण प्रतिबन्ध। इसी प्रकार के एक समाचार के छपने के बाद दिल्ली के वरिष्ठ प्रतिनिधि को बिना किसी चेतावनी के हटा दिया था।
समाचारों में लिप्तता पाए जाने पर कोटा के स्थानीय सम्पादक को पद मुक्त करके उसका समाचार भी प्रकाशित किया था। कैलाश-मानसरोवर यात्रा विवरण की शिकायतों पर भी एक संपादकीय सहयोगी को विदा किया था। वहीं अच्छे समाचारों के लिए संवाददाताओं को पदोन्नत तक किया गया। आज तो हर संस्करण में गुणवत्ता-पुरस्कार वार्षिक परम्परा बन गई है।
राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में पत्रिका ने जन आकांक्षा के अनुरूप विशेष प्रयास किए। पत्रिका-संवाददाता हर बड़े अभियान में नेताओं के साथ देशभर में आकलन करते रहते थे। अटल बिहारी वाजपेयी, वीपी सिंह, जयप्रकाश नारायण, नरेन्द्र मोदी के अभियानों पर साथ रहकर आंखों देखा हाल पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया। विवादित ढांचे को ध्वस्त करने का आंखों देखा हाल भेजने वाले पत्रिका संवाददाता गोपाल शर्मा आज विधायक हैं। हाल ही वर्षों में काला-कानून के विरुद्ध अभियान भी बाबूसा के निर्णय की शृंखला में एक कड़ी ही थी। समाचारों की पवित्रता में उसी निर्णय की गंध महकती है।
पाठकों के हाथ हल्के स्तर की सामग्री न पहुंचे, इसके लिए कहानी-कविता के प्रकाशन को पुरस्कारों से जोड़ा। यही स्थिति अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बनाई गई। बाबूसा की स्मृति (केसीके अवॉर्ड ) में 11-11 हजार डालर के पत्रकारिता और सामाजिक विज्ञापनों के पुरस्कार आज भी सबसे बड़े हैं। पत्रकारिता ही मीडिया की आत्मा है। वाल्तेयर का यह ध्येय वाक्य हमेशा कानों में गूंजता है। ‘हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा करूंगा। यह प्रण आज भी पत्रिका में जीवित है। देश के बिकाऊ मीडिया जहां अपने बड़े होने पर सीना फुलाते हैं, पत्रिका अपने गुरुत्व-दायित्व-बोध के साथ गर्व से खड़ा है।
समाचारों के साथ जन सरोकार, देश के विकास में भूमिका और संस्कृति संरक्षण जैसे महत्वपूर्ण लक्ष्य लेकर चले। ‘मैं देखता चला गया’ उनकी माटी के प्रति प्रतिबद्धता का प्रमाण है। आज भी अधिकांश गांवों की स्थिति मिलाकर देख लें तो भ्रष्टाचार की तस्वीर दिखाई देगी। जल, भूमि, हरियाली संरक्षण के साथ अन्न-वाणी-ज्ञान की परम्परा पर उनके लेखन अति गहन हैं। नीति-निर्माण में, कानूनों में विदेशी दृष्टि का दंश उन्हें सदा पीडि़त करता रहा।
पत्रिका में भी भाषा की शुद्धता और एकरूपता को सदा ही महत्वपूर्ण माना। भाषा सुधार के लिए तो भगवान सहाय त्रिवेदी को वर्षों इसी कार्य में लगाए रखा। आज पत्रिका में भाषा की एकरूपता के लिए स्टाइल बुक तैयार है जिसमें हजारों शब्दों का स्वरूप दिया है। अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग उन्हें कतई स्वीकार नहीं था। आज तो सीमा ही टूट रही है।
पत्रिका कर्मचारी उनके शरीर के अंग थे। वे उनको कर्मचारी नहीं परिवार का अंग मानते थे। उनका यह उद्घोष आज भी चर्चा में है कि ‘जब तक मेरे सभी साथियों का अपना मकान नहीं बन जाएगा, मैं अपना मकान नहीं बनाऊंगा।’ और उन्होंने ऐसा ही किया।
वार्षिक लाभ-हानि के लेखा-जोखों में यदि कभी हानि हुई, तब भी उन्होंने किसी का बोनस कम नहीं करने दिया। ‘उनकी तरफ से कोई कमी नहीं थी’ दो बार मैंने घाटे के बावजूद 20 प्रतिशत बोनस जारी करते देखा है। उनका एक निश्चित मत था कि संस्थान सब मिलकर चलाते हैं। संस्थान का हर व्यक्ति समृद्ध नजर आएगा, तभी संस्थान का यश बढ़ेगा। हमारा कार्य खुद को बड़ा करना नहीं है। कर्मचारी-वितरक आदि जैसे-जैसे बड़े होंगे, संस्थान स्वत: बड़ा होता जाएगा। सारा जोर उनको बड़ा होने पर लगाना होगा।
कर्मचारियों के परिवार की देखभाल की भी कुछ निश्चित जिम्मेदारी हमें उठानी चाहिए। ताकि व्यक्ति काम पर निश्चिन्त रह सके। माता-पिता का स्वास्थ्य और बच्चों के विकास के मुद्दे। छुट्टियों में उनके बच्चों को घूमने भेजना परिवार (पत्रिका) की जड़ों को गहरा करता गया। आज तो कुछ सदस्यों की तीसरी पीढ़ी कार्य संभाल रही है। कुछ बच्चों के आपस में विवाह भी हो चुके हैं।
व्यापार में सिद्धान्त पक्के हों और जुबान भी पक्की हो। उन्होंने किसी किस्त की तारीख नहीं टलने दी। एक बार तो कठिनाई आने पर उन्होंने अपनी जमीन खड़े-खड़े बेच दी। उधार देने वालों के पास रेल में बैठकर गए और वहां पहुंचकर किस्त पहुंचाई। एक बार जब उनके पास कागज छुड़ाने को पैसे नहीं थे, तब उनके एक सहयोगी ‘मनोहर प्रभाकर ने रात को अपनी पत्नी के गहने लाकर सौंपे।’ कल अखबार छपना चाहिए। शहर में जब भी नई कॉलोनी कटती थी-गृह निर्माण समितियों की-तो श्रद्धेय बाबूसा 8-10 पट्टे खरीकर रख लेते थे। कर्मचारियों को बांटते रहे, समय पर मदद करते रहे। हॉकर्स भले ही भूल गए हों, उनके लिए सांगानेर हवाई अड्डे के पास भूमि आवंटन करवाया-उनके मकान बने।
एक बात सदा कहते थे कि कभी भी कोई सहयोगी मदद मांगने आ जाए, उसे मना मत करो। किसी को उधार दो, तो यह सोचकर दो कि मैं वापस नहीं मांगूंगा। मैंने 15-20 साल बाद भी लोगों के पैसे चुकाते देखा है। इंसान काम से छोटा-बड़ा नहीं होता। उसका सदा सम्मान होना चाहिए। पत्रिका की 15 अगस्त को होने वाली वार्षिक गोठ, सम्मान का सबसे बड़ा प्रमाण था, जहां बाबूसा शहर के सभी हॉकर्स के साथ, राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत एवं गणमान्य लोगों के साथ जमीन पर बैठकर खाना खाते थे।
श्रद्धेय बाबूसा प्रबंध को तंत्र नहीं मानवीय संवेदना और आत्मीयता का पहलू मानते थे। उनकी दृष्टि में पत्रिका एक व्यावसायिक संस्थान से बढक़र परिवार ज्यादा रहा है। आज पत्रिका जो कुछ है, उसके रोम-रोम में कई लोगों का अथक परिश्रम, प्रयास व साधना निहित है। इस भाव से ही हमारे सहयोगियों से लेकर पाठक तक सब खुद को पत्रिका ही मानते हैं। यदि व्यक्ति आपका है तो भविष्य आपका है।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com