समझ में नहीं आता कि व्यक्ति सुख के लिए जीना चाहता है अथवा सुविधा के लिए। मूल में तो दोनों ही नश्वर हैं, शरीर मात्र से ही सम्बन्धित हैं। अत: दाम्पत्य भाव भी इसके आगे नहीं जाता। शरीर तो जड़वत है, बांधकर रखने की क्षमता इसमें नहीं है। मन में इच्छाओं की अनंत लहरें उठती हैं। प्रशिक्षण के अभाव में मन अविद्या-अस्मिता-आसक्ति-अभिनिवेश रूपी जाल में फंसा रहता है। पशु की तरह आहार-निद्रा-भय-मैथुन से आगे जी नहीं पाता। इसकी चंचलता अजेय सिद्ध होती हैं।
पुरुष बाहर ऊर्जा है, भीतर पदार्थ (सोम) है। स्त्री भी बाहर सौम्या है, भीतर ऊर्जा का भण्डार है। पुरुष का आधा सोम भाग अल्प पोषित रहता है। शिक्षा ने स्त्री की सौम्यता के स्थान पर ऊर्जा रूप बुद्धि (अग्नि) का ही पोषण किया है। अत: दोनों ही अपूर्ण हो गए। प्रकृति ने कर्मों के अनुरूप स्वरूप प्रदान किया था, शिक्षा ने अपूर्ण कर दिया।
दाम्पत्य जीवन की एक जैसी तस्वीरें विश्वभर में दिखाई पड़ रही हैं। पवित्रता तो मानो विषय नहीं रहा अब। या तो शरीर रह गया अथवा बुद्धि और तीसरी चीज रह गई-मनमर्जी, स्वच्छन्दता।
आजकल ‘सोनम’ के चर्चे सबकी जुबान पर हैं। ऐसे कितने समाचार पिछले दिनों पढ़ने को मिले। पिछले पांच वर्षों में 785 स्त्रियों ने, पांच राज्यों में, अपने प्रेमियों के साथ मिलकर अपने पतियों की हत्या कर डाली। क्या यह भारत का ही समाचार है! समाज तेजी से करवट बदल रहा है। पुरुष के स्थान पर स्त्री आक्रामक हो रही है। एक खबर का शीर्षक यह भी है- ‘चीन में टूट रहे रिश्ते, तलाक की ऐसी मारामारी कि एजेण्टों की मदद लेनी पड़ रही है। ‘स्लॉट’ बुक कराने के लिए रातभर जागना पड़ रहा।’ अमरीका की बड़ी समस्या है ‘कुंवारी मां।’ अब एक नया वातावरण बन रहा है-आइवीएफ, गर्भ निरोधक गोलियां, स्तन-गर्भाशय के कैंसर, अपंग संतानें आदि तीव्रता से छा रहे हैं जीवन में। दूसरी ओर लड़कियां कक्षा से भाग रही हैं-कुछ घंटों के लिए। पुलिस रिकार्ड चौंकाने वाला है। क्यों?
एक- शादी सही उम्र में नहीं होती। दो- लड़का भीतर (स्त्री भाव) में अप्रशिक्षित। पुरुष रूप में उष्ण-आक्रामक-अतिक्रमी तो है, किन्तु संवेदना अति अल्प रह गई। उसका आवेग क्षणिक रह गया। अपने भीतर की संतुष्टि से अनभिज्ञ ही रहता है। तर्क मात्र रहता है।
तीन- लड़की जल्दी शरीर से पूर्ण हो जाती है। ऋतुमति होने की उम्र घट रही है। वह भी पौरूष में बढ़ रही है। चार- लड़की भी आक्रामक होने लगी है। उसकी सौम्य प्रकृति भी सिमट रही है। भीतर आग्नेय तत्व बढ़ रहा है।
बेटियां कमाने लगीं हैं तो पति की भूमिका में आ गई हैं। ब्याह तो पति से किया पर अब वे स्वयं ही पति हैं। हालत यह है कि पति बने ये दोनों अब एक—दूसरे में पत्नी तलाश रहे हैं। इसलिए सुखी कोई भी नहीं है। दोनों के लिए शरीर का भोग प्राथमिकता हो गई। संवेदना भी गौण, निर्णय त्वरित, परिणाम किसने देखे। शहरों के युवा कॉलेज से निकलने से पहले ही सुखसागर में गोते लगा लेते हैं। तब विवाह का आकर्षण कैसा? कॅरियर के चिपक जाओ, लिव-इन में रहो। जब मर्जी बदल डालो। फ्रांस के एक युवा ने स्वीकार किया कि स्त्री उसको चाहिए तो अवश्य, किन्तु सदा के लिए नहीं चाहिए। आती रहे-जाती रहे, बस! परिवार नहीं चाहिए। शरीर में पकड़ भी कहां इतनी होती है! अब लुटेरी दुल्हनें, हनी-ट्रेप और देह व्यापार का बाजार गर्म हो रहा है।
जब स्त्री-पुरुष दोनों ही शरीर पर आकर टिक गए, संवेदनाएं खोने लगी, तब देह की जड़ता और मन की स्वच्छन्दता ही जीवन के सारथी होंगे। शिक्षा-काल के सम्बन्ध भी कई बार लम्बे चल पड़ते हैं। इसमें तो दोनों पक्ष ही प्रभावित होते हैं, किन्तु स्त्री पक्ष को ही हानि होती है। कई बार ब्लैकमेल की शिकार भी हो जाती हैं और लव-जिहाद की भी।
जिस प्रकार संवेदना पीछे छूट रही है, शरीर निष्प्राण होते जा रहे हैं। दोनों के शरीर आग्नेय हो रहे हैं। सोम के लिए टूट पड़ रहे हैं। दोनों दाहक से हैं, रुक्ष हैं। काष्ठखंभ से टकरा रहे हैं, जल रहे हैं। आत्मा के स्तर पर अंधेरा है। शरीर की भूख असहनीय स्तर तक पहुंच रही है। सबके अपने-अपने कारण हैं। और आग में घी का काम मोबाइल-टीवी-सोशल मीडिया कर रहे हैं। कच्ची उम्र में लोग काम में प्रवाहित हो रहे हैं। कुछ नजदीक के रिश्तेदार भी मौके की ताक में रहते हैं।
कृष्ण बहुत पहले गीता में कह गए- ‘ध्यायतो विषयान्पुंस: संगस्तेषूपजायते। संगात्संजायते काम: कामात् क्रोधोऽभिजायते ॥’ (गीता २/६२) ‘क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहत्स्मृतिविभ्रम:। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥’ (गीता २/६३) देश के शास्त्र स्त्री को नरक का द्वार कहते हैं। इसका अभिप्राय तो किसी को समझ में नहीं आया, किन्तु स्त्री ने पुरुष की नकल करके स्वयं को नरक में अवश्य धकेल दिया। शास्त्र कहते हैं-‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:’ शिक्षा में न मां रही, न ही देवता।