JLF 2025: संविधान भारत के प्रत्येक नागरिक को पढ़ना होगा, ताकि अपने अधिकारों को बेहतर तरीके से समझ सके- अर्घ्य सेन गुप्ता
Jaipur Literature Festival 2025 : अर्घ्य सेन गुप्ता ने मौलिक अधिकारों पर कहा कि लोगों को लगता है कि हमारे पास बहुत सारे मौलिक अधिकार है लेकिन कही न कही प्रतिबंधित है।
जयपुर। समानता वह है, जहां हर नागरिक अपना जीवन आजादी के साथ जीये। संविधान भारत के प्रत्येक नागरिक को पढ़ना होगा, ताकि आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और साम्प्रदायिक रूप से अपनी समझ और अधिकारों को बेहतर तरीके से समझ सके। यह बात ‘ डेमोक्रेसी एंड इक्वलिटी: द कॉन्स्टिट्यूशन स्टोरी’ विषय पर आयोजित सत्र में में अश्विनी कुमार, अघ्र्या सेन गुप्ता, सौरभ कृपाल और नित्या रामकृष्णन कही।
अर्घ्य सेन गुप्ता ने मौलिक अधिकारों पर कहा कि लोगों को लगता है कि हमारे पास बहुत सारे मौलिक अधिकार है लेकिन कही न कही प्रतिबंधित है। हमारा संविधान अभी भी कोनोलियन संविधान है। आजादी के बाद सभी संस्थाएं इंग्लिस्तान है, जो अंग्रेजी कॉन्सेप्ट पर चल रहे हैं।
सारी शक्ति केंद्र में न होकर लोकल गर्वेमेंट को भी पावर दिए जाने चाहिए। सरकार के पास अधिक पावर है, लेकिन इसका फायदा नागरिकों को नहीं मिलता है। हमें लोकल इंस्ट्सयूट के बारे में सोचने की आवश्यकता है। हमें नया संविधान बनाने की आवश्यकता होनी चाहिए। समानता , सेक्युलरिज्म , डीसेंचुलाइजेशन, राइट विदाउट ड्यूटीइन सब पर भी काम करना चाहिए। मौलिक अधिकारों के लिए सामान्य संवाद होना चाहिए।
सौरभ कृपाल ने कहा कि हम आज भी पितृसत्तात्मक समाज में रह रहे हैं। अधिकतर पर्सनल लॉ महिलाओं के हित में नहीं हैं। हमारी धार्मिक किताबों में भी पितृसत्तात्मकता का जिक्र है, जो आज तक चला आ रहा है। महिलाओं के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोर्ट एक अच्छा ऑप्शन होगा इसका मैं समर्थन नहीं करता।
यूनिफॉर्म सिविल कोर्ट पर विश्वास नहीं किया जाता हैं। केवल दिखाया जाता है कि यूनिफॉर्म सिविल कोर्ट निष्पक्ष होकर फैसले देता है, लेकिन इस कोर्ट का झुकाव ,फैसले उस पक्ष में होते है जहां मेजोरिटी लोगों की पॉवर होती है। ट्रिपल तलाक के दौरान कोर्ट ने बोल दिया कि तीन बार तलाक बोलने से तलाक नहीं होगा लेकिन कोर्ट ने लेकिन कोर्ट ने यह भी बोला है कि अगर कोई पुरूष ऐसा करता है तो उसे जेल भेज दिया जाएगा।
तो यह एंटी माइनोरीटी हुआ। अगर उसे जेल भेजेंगे उसके बाद उसकी पत्नी और बच्चों का क्या होगा इस बात पर कोई फैसला नहीं लिया। वहीं उत्तराखंड में यूसीसी ने लिव इन रिलेशनशिप के लिए हामी भर दी, लेकिन साथ में यह भी बोला कि लिव इन रिलेशन में रहने वाले कपल्स को पहले किसी पुजारी का सर्टिफिकेट लेना होगा। सिविल कोर्ट बिलकुल भी सेक्युलर नहीं हैं।
कारपेट इन कॉन्स्टिट्यूशन
कृपाल ने कहा कि आर्थिक असमानता पर बात करते हुए कहा कि हम आर्थिक समानता के बारे में बात नहीं करते है। अक्सर लोग धर्म, जाति की समानता को लेकर चर्चा करते है, क्योंकि इनके बारे में बात करना आसान है। इकोनॉमी के बारे में लोग बजट के दौरान बात करते है, जब टैक्स बढ़ाया जाता है। तब ही लोग सवाल करते हैं। हमने 75 वर्षों में कई सफलता हासिल की है, लेकिन आर्थिक असमानता एक ऐसी समस्या है जो आज भी वैसी की वैसी है। आर्थिक असमानता के मुद्दे को हमारे देश में हमेशा से नजरअंदाज किया जा रहा है।
नित्या रामकृष्णन ने कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मामले में न्यायपालिका संविधान के सिद्धांतों को तो मानती है, लेकिन इसके परिणामों पर ज्यादा ध्यान नहीं देती। सुप्रीम कोर्ट के एक शुरुआती न्यायधीश, न्यायमूर्ति विवियन बोस ने कहा था कि न्यायपालिका ने संविधान में छुपे हुए उन मूल्यों को समझने और बढ़ावा देने की कोशिश की, जो समानता और स्वतंत्रता की ओर बढ़ाते हैं।
यह काम मुख्य रूप से न्यायपालिका के माध्यम से किया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट की बड़ी भूमिका रही है। कोर्ट कई फैसले ऐसे लेता है जिससे अपराधी को ही फायदा मिलता है। उदाहरण के तौर पर हम बाबरी मज्ज्दि का उदाहरण देख सकते है। संविधान को सुरक्षित रखने के लिए उसे होली बुक की तरह क्रिएट नहीं करना है।
अश्विनी कुमार ने कहा कि भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार इंसान की गरिमा की सुरक्षा नहीं करता है। भारतीय संविधान मानव गरिमा के बारे में है।समानता, स्वतंत्रता, शिक्षा के मौलिक अधिकार है लेकिन इसके बावजूद भी इंसान की गरिमा खतरे में है। हर दिन अखबारों में मानव गरिमा पर हो रहे अत्याचारों के बारे में आता रहता है।
संविधान और मौलिक अधिकारों को बेहतर करने के साथ ही ह्यूमन डिगनिटी को मौलिक अधिकार का दर्जा मिले। संविधान सिर्फ वकील और जज की ही जिम्मेदारी नहीं है बल्कि प्रत्येक उस नागरिक की है।