कारीगरों की कमी से बिखर रही परंपरा
छप्पर निर्माण एक विशिष्ट कला थी, जिसे कुछ ही समुदायों के लोग जानते थे। इन दिनों नए पीढ़ी के लोग यह काम छोड़ शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं। इससे पारंपरिक छप्पर बनाने वाले कारीगर गिनती के रह गए हैं।एक्सपर्ट व्यू: केवल आश्रय ही नहीं लोक ज्ञान का प्रतीक
राजस्थानी लोकसंस्कृति विशेषज्ञ डॉ. भंवरदानसिंह रतनू कहते हैं कि छप्पर केवल आश्रय नहीं, बल्कि लोकज्ञान का प्रतीक थे। यह जलवायु के अनुसार बनाया गया एक अद्भुत समाधान था। कंक्रीट के मकान पर्यावरण और जेब – दोनों पर भारी पड़ते हैं। अगर समय रहते पारंपरिक तकनीकों को नहीं बचाया गया, तो यह धरोहर सदा के लिए खो जाएगी।ग्रामीणों का दर्द
रामगढ़ क्षेत्र के वृद्ध किसान भूराराम बताते हैं कि हमारे जमाने में हर घर छप्पर से ढका होता था। आज तो गांव के बच्चे भी इसे देखकर हंसते हैं। कारीगर भी अब नहीं मिलते। मजबूरी में सीमेंट का घर बनवाया, लेकिन गर्मी में टिक पाना मुश्किल है।दूसरी ओर नहरी क्षेत्र की गृहिणी अम्बूबाई कहती हैं कि छप्पर में ठंडी हवा चलती थी। अब मकान तो पक्के हैं, लेकिन मन चैन से नहीं रहता।