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जनगणना में देरी : देश में नीति निर्माण प्रक्रिया में असर

जनगणना का महत्त्व केवल आंकड़े जुटाने तक सीमित नहीं है। यह नीति-निर्माण, संसाधन आवंटन, सामाजिक न्याय और आर्थिक नियोजन के लिए आधार तैयार करती है।

जयपुरMar 16, 2025 / 04:43 pm

Neeru Yadav

देवेन्द्रराज सुथार

भारत में जनगणना एक ऐसी प्रक्रिया है, जो देश की सामाजिक, आर्थिक और जनसांख्यिकीय संरचना को समझने का आधार प्रदान करती है। यह हर दस साल में आयोजित की जाती रही है, जिसकी शुरुआत 1872 में ब्रिटिश शासनकाल में हुई थी, हालांकि नियमित और वैज्ञानिक रूप से पहली जनगणना 1881 में शुरू हुई। स्वतंत्रता के बाद से, 1951 से लेकर 2011 तक, यह प्रक्रिया निर्बाध रूप से चलती रही। लेकिन 2021 में प्रस्तावित जनगणना, जो देश की जनसांख्यिकीय तस्वीर को अद्यतन करने के लिए महत्त्वपूर्ण थी, अभी तक शुरू नहीं हो सकी है। यह देरी आजादी के बाद पहली बार हुई है और इसके पीछे कई कारणों के साथ-साथ इसके प्रभाव भी व्यापक हैं।
जनगणना का महत्त्व केवल आंकड़े जुटाने तक सीमित नहीं है। यह नीति-निर्माण, संसाधन आवंटन, सामाजिक न्याय और आर्थिक नियोजन के लिए आधार तैयार करती है। भारत जैसे विशाल और विविध देश में, जहां जनसंख्या लगभग 140 करोड़ के आसपास है, यह प्रक्रिया और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है। हर दशक में होने वाली यह गणना जनसंख्या वृद्धि, प्रजनन दर, मृत्यु दर, शहरीकरण, शिक्षा स्तर, रोजगार और जातिगत संरचना जैसे पहलुओं की जानकारी देती है। लेकिन 2021 की जनगणना में देरी ने इन सभी क्षेत्रों में डेटा की कमी पैदा कर दी है। इसका सबसे पहला कारण कोविड-19 महामारी को माना गया। 2020 में जब महामारी ने देश को प्रभावित किया, तो लॉकडाउन और स्वास्थ्य संकट के चलते इस प्रक्रिया को स्थगित करना स्वाभाविक लगा। लेकिन चार साल बाद भी इसकी शुरुआत न होना कई सवाल खड़े करता है।
महामारी के बाद सामान्य स्थिति बहाल होने के बावजूद सरकार ने जनगणना शुरू करने की कोई ठोस समय-सीमा घोषित नहीं की। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह देरी केवल तकनीकी या प्रशासनिक नहीं है, बल्कि इसके पीछे राजनीतिक और नीतिगत कारण भी हैं। भारत में जनगणना के साथ राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को अद्यतन करने की योजना भी जुड़ी हुई है, जो नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) जैसे मुद्दों से सम्बंधित है। इन विवादास्पद पहलुओं ने जनगणना को लेकर संशय पैदा किया है। कई विपक्षी दलों और नागरिक समूहों ने एनपीआर और एनआरसी के साथ जनगणना को जोड़ने का विरोध किया है, जिसके चलते सरकार शायद इस प्रक्रिया को शुरू करने में हिचक रही हो। यह अनिश्चितता जनता के बीच भी भ्रम पैदा कर रही है।
एक और महत्त्वपूर्ण कारण तकनीकी तैयारियों में कमी हो सकता है। जनगणना एक विशाल कार्य है, जिसमें लाखों कर्मचारियों को प्रशिक्षित करना, डिजिटल उपकरणों को तैयार करना और डेटा संग्रह की प्रक्रिया को निर्बाध बनाना शामिल है। 2021 की जनगणना को पहली बार पूरी तरह डिजिटल करने की योजना थी, जिसमें मोबाइल ऐप और ऑनलाइन पोर्टल का उपयोग होना था। लेकिन महामारी के दौरान इन तैयारियों पर ध्यान नहीं दिया गया और बाद में भी इसमें तेजी नहीं लाई गई। इसके अलावा, जनगणना के दौरान पूछे जाने वाले प्रश्नों की सूची, जिसमें जाति आधारित डेटा शामिल करने की मांग भी है, अभी तक अंतिम रूप नहीं ले सकी है। यह नीतिगत अनिर्णय देरी का एक बड़ा कारण बन रहा है।
इस देरी का प्रभाव आर्थिक नियोजन पर भी पड़ रहा है। भारत में कई कल्याणकारी योजनाएं, जैसे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) , जनगणना के आंकड़ों पर निर्भर करती हैं। 2011 की जनगणना के आधार पर अभी भी खाद्यान्न वितरण और सब्सिडी दी जा रही है, जबकि पिछले एक दशक में जनसंख्या संरचना में बड़ा बदलाव आया है। शहरीकरण बढ़ा है, ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन हुआ है और गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या में बदलाव आया है। लेकिन पुराने डेटा के आधार पर नीतियां बनाना अब अप्रासंगिक हो गया है। इससे संसाधनों का गलत आवंटन हो रहा है और जरूरतमंद लोगों तक लाभ नहीं पहुंच पा रहा।
सामाजिक न्याय के संदर्भ में भी यह देरी चिंताजनक है। भारत में जाति एक संवेदनशील और महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। कई राजनीतिक दल और सामाजिक संगठन लंबे समय से जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे हैं, ताकि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अन्य समुदायों की वास्तविक आबादी का पता चल सके। 1931 के बाद से जाति डेटा व्यवस्थित रूप से नहीं जुटाया गया है और 2011 में शुरू की गई सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) के आंकड़े भी पूरी तरह विश्वसनीय नहीं माने गए। 2021 की जनगणना में इस कमी को दूर करने की उम्मीद थी, लेकिन देरी ने इस मांग को और जटिल बना दिया है। इससे सामाजिक नीतियां बनाने में असमंजस बढ़ रहा है।
जनसंख्या में देरी का असर पर्यावरणीय और शहरी नियोजन पर भी दिखता है। भारत में तेजी से शहरीकरण हो रहा है और शहरों की आबादी बढ़ रही है। लेकिन बिना अद्यतन डेटा के, सरकार यह नहीं समझ पा रही कि कितने लोगों के लिए बुनियादी ढांचे, जैसे पानी, बिजली और आवास, की जरूरत है। बड़े शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या बढ़ रही है और ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व बदल रहा है। यह जानकारी न होने से नीति-निर्माता प्रभावी योजनाएं नहीं बना पा रहे। जलवायु परिवर्तन के दौर में, जब संसाधनों का संतुलित उपयोग जरूरी है, जनगणना डेटा की कमी एक बड़ी बाधा बन रही है।
शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में भी इस देरी का प्रभाव स्पष्ट है। 2011 के बाद से स्कूल-आयु जनसंख्या में बदलाव आया है, लेकिन इसके सटीक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इससे शिक्षा नीतियां बनाने में कठिनाई हो रही है। इसी तरह, स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जनसंख्या डेटा जरूरी है, खासकर टीकाकरण, मातृ-शिशु स्वास्थ्य और बुजुर्गों की देखभाल के लिए। कोविड-19 के दौरान यह कमी साफ दिखी, जब सरकार को पुराने आंकड़ों पर निर्भर रहना पड़ा। यह स्थिति भविष्य में किसी अन्य संकट के दौरान और गंभीर हो सकती है।
राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में, जनगणना में देरी का असर परिसीमन की प्रक्रिया पर भी पड़ सकता है। भारत में लोकसभा और विधानसभा सीटों का निर्धारण जनसंख्या के आधार पर होता है। 1971 के आंकड़ों के आधार पर आखिरी बार परिसीमन हुआ था, जिसे 2002 में संशोधित किया गया। 2026 में प्रस्तावित परिसीमन के लिए 2021 की जनगणना का डेटा जरूरी था। लेकिन अब यह प्रक्रिया भी अनिश्चित हो गई है। इससे क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ सकता है, खासकर उन राज्यों में जहां जनसंख्या वृद्धि कम हुई है, जैसे दक्षिण भारत और जहां यह अधिक है, जैसे उत्तर भारत। यह राजनीतिक प्रतिनिधित्व के सवाल को जटिल बना रहा है।
देरी के वैश्विक प्रभाव भी अनदेखे नहीं किए जा सकते। भारत संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों को जनसंख्या डेटा प्रदान करता है, जो वैश्विक नीतियों और सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के लिए जरूरी है। 2011 के बाद से भारत का डेटा अपडेट नहीं हुआ, जिससे वैश्विक स्तर पर इसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं। विकासशील देशों में भारत की स्थिति को देखते हुए, यह कमी अंतरराष्ट्रीय सहयोग और सहायता को भी प्रभावित कर सकती है।
इस देरी से निपटने के लिए सरकार को तत्काल कदम उठाने होंगे। सबसे पहले, एक स्पष्ट समय-सीमा घोषित करनी चाहिए, ताकि जनता और नीति-निर्माताओं को भरोसा हो। जनगणना में देरी ने भारत के सामने कई चुनौतियां खड़ी की हैं, लेकिन यह एक अवसर भी हो सकता है। अगर इसे सही तरीके से लागू किया जाए, तो यह न केवल पुरानी कमियों को दूर करेगा, बल्कि भविष्य के लिए एक मजबूत आधार भी तैयार करेगा। सरकार को इस प्रक्रिया को प्राथमिकता देनी होगी, क्योंकि इसके बिना देश का विकास अधूरा रहेगा।

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