Opinion : अभिव्यक्ति की आजादी बनाम अभिव्यक्ति की उच्छृंखलता
अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर अभिव्यक्ति की उच्छृंखलता को स्वीकार नहीं किया जा सकता। संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी को लोकतंत्र का बहुमूल्य हिस्सा माना गया है, लेकिन ऐसे लोग जो स्वतंत्रता और उच्छृंखलता का फर्क नहीं कर पाते, अपनी कारगुजारियों से स्वतंत्रता को ही खतरे में डाल देते हैं। हमें यह समझना होगा […]
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अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर अभिव्यक्ति की उच्छृंखलता को स्वीकार नहीं किया जा सकता। संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी को लोकतंत्र का बहुमूल्य हिस्सा माना गया है, लेकिन ऐसे लोग जो स्वतंत्रता और उच्छृंखलता का फर्क नहीं कर पाते, अपनी कारगुजारियों से स्वतंत्रता को ही खतरे में डाल देते हैं। हमें यह समझना होगा कि स्वतंत्रता में जिम्मेदारी का भाव, सामाजिक सरोकार और देश ही नहीं, पूरी इंसानियत को आगे ले जाने का जज्बा निहित होता है। जबकि उच्छृंखलता में यह कुछ नहीं होता, सिर्फ फूहड़ता और तात्कालिक रूप से ध्यान खींचकर अपना स्वार्थ सिद्ध किया जाता है। यूट्यूब और सोशल मीडिया पर इंडियाज गॉट लैटेंट जैसे कई कार्यक्रम पिछले कुछ सालों में कुकरमुत्ते की तरह उग आए हैं, जिसमें फूहड़ता की सारी हदें पार की जा रही हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और क्रिएटिविटी के नाम पर इस उच्छृंखलता को हर हाल में रोका जाना चाहिए। यह काम सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं हो सकता, सरकार सिर्फ नियम बना सकती है, उसका पालन करना नागरिकों को ही दायित्व होता है। ज्यादा सख्ती करने पर उच्छृंखलता के साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर शिकंजा कसने का खतरा बढ़ सकता है, जो अंतत: लोकतंत्र के लिए नुकसानदायक हो सकता है।
सोशल मीडिया पर कथित कलाकारों की नई पौध कॉमेडी की आड़ में अभद्र भाषा, दोहरे अर्थों वाले संवाद और समाज के मूल्यों की खिल्ली उड़ाने को ही हास्य समझ बैठी है। जबकि हमारी हास्य और व्यंग्य परंपरा बहुत समृद्ध रही है। शरद जोशी, हरिशंकर परसाई, काका हाथरसी, श्रीलाल शुक्ल, अविनाश वाचस्पति, डॉ. शिव शर्मा, अशोक चक्रधर, केपी सक्सेना, हुल्लड़ मुरादाबादी जैसे व्यंग्यकारों के शब्दों में गहरी सामाजिक चेतना होती थी। वे समाज को न केवल हंसाते थे, बल्कि सोचने पर भी मजबूर करते थे। अच्छा होगा कि हम उस परंपरा को ही आगे बढ़ाएं। इसके लिए एक नागरिक और समाज के रूप में हमें सजग होना होगा। सोशल मीडिया पर हम क्या देखें और क्या न देखें, यह हमें ही तय करना होगा। डिजिटल युग का अर्थशास्त्र कंटेंट की व्यूअरशिप के इर्द-गिर्द घूमता है। सजग और समझदार समाज ऐसे कंटेंट क्रिएटर को पनपने से पहले ही रोक सकता है। ऐसा न होना चिंतित करने वाला है। यह समय जागने का है। कानून तो अपना काम करेगा लेकिन समाज को भी अपना काम करना होगा, ताकि कोई भी व्यूज और लाइक की दौड़ में अश्लीलता की लक्ष्मण रेखा पार न कर सके।
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