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Opinion : महिलाओं के प्रति नजरिया बदलने वाला अहम फैसला

महिलाओं के खिलाफ हिंसा की बात जब भी होती है, उन्हें मौखिक या लिखित रूप से संबोधित करने वाली भाषा की अनदेखी की जाती रही है। ये संबोधन ऐसे हैं जो स्वीकृत परिपाटी के जरिए पारम्परिक रूप से चले आ रहे हैं। लेकिन जब महिलाओं को इन शब्दों से संबोधित किया जाता है तो वे […]

जयपुरFeb 17, 2025 / 09:46 pm

harish Parashar

महिलाओं के खिलाफ हिंसा की बात जब भी होती है, उन्हें मौखिक या लिखित रूप से संबोधित करने वाली भाषा की अनदेखी की जाती रही है। ये संबोधन ऐसे हैं जो स्वीकृत परिपाटी के जरिए पारम्परिक रूप से चले आ रहे हैं। लेकिन जब महिलाओं को इन शब्दों से संबोधित किया जाता है तो वे सिर पर किसी हथौड़े से कम नहीं पड़ते। ऐसे ही संबोधनों पर संज्ञान लेते हुए जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने तलाकशुदा महिलाओं को ‘डाइवोर्सी’ कहकर संबोधित करने पर यह कहते हुए रोक लगा दी है कि किसी महिला को सिर्फ तलाकशुदा होने के आधार पर ‘डाइवोर्सी’ की पहचान देना सर्वथा अनुचित है। महिलाओं के प्रति भेदभाव वाली भाषा के इस्तेमाल को लेकर अदालत ने यह भी कहा है तलाकशुदा महिलाओं को उनके नाम से पहचाना जाना चाहिए, न कि उनकी वैवाहिक स्थिति के आधार पर। अदालत ने फैसले में कहा है कि भविष्य में किसी याचिका या अपील में महिला को ‘डाइवोर्सी’ कहकर संबोधित किया गया तो वह याचिका खारिज कर दी जाएगी।
यह पहली बार नहीं है जब किसी अदालत ने महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण भाषा के इस्तेमाल पर चिंता जताई है। वर्ष 2023 में, तत्कालीन चीफ जस्टिस डीवाइ चंद्रचूड़ ने सुप्रीम कोर्ट की तरफ से एक ‘हैंडबुक’ जारी की थी, जिसमें विभिन्न अदालती प्रकरणों में महिलाओं के लिए इस्तेमाल होने वाले अपमानजनक संबोधनों का जिक्र करते हुए इनसे बचने को कहा गया था। तब सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि ‘अपराधी, चाहे वह पुरुष हो या महिला, केवल मनुष्य है, इसलिए हम महिलाओं के लिए व्यभिचारी, वेश्या, बदचलन, धोखेबाज, आवारा जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर सकते।’ समय-समय पर जारी अदालतों के निर्देशों के बावजूद एक चिंताजनक तथ्य यह भी है कि सरकारी कामकाज में ही लिंगभेद व अपमानजनक संबोधनों वाली भाषा का इस्तेमाल खूब हो रहा है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में जाति व धर्म से परे रहने की बातें तो जरूर होती हैं, लेकिन किसी भी महिला-पुरुष से पहचान के सरकारी दस्तावेज बनाने तक में जाति-धर्म की पहचान पर सवाल लंबे समय से हो रहे हैं। सरकारों व अदालतों ने जिस शब्दावली की मनाही की है, उनकी भी पालना हो रही है अथवा नहीं, इसे देखने तक की व्यवस्था नहीं है। सच तो यही है कि महिला हो अथवा पुरुष, उसकी पहचान व्यक्तित्व व उपलब्धियों से होनी चाहिए न कि उसकी वैवाहिक स्थिति से। कोर्ट का यह फैसला महिलाओं के प्रति समाज के नजरिए को बदलने की दिशा में अहम कदम कहा जाएगा, जिससे अदालती प्रक्रियाओं में भी बदलाव आएगा।

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