आज अमरीकी नीतियों से अमरीका के अन्दर-बाहर एवं विदेशों तक में उठापटक (आर्थिक) होने लगी है। इनमें अधिकांश नीतियां एकतरफा हैं, आहत करने वाली हैं। अनेक सहयोगी देशों को भी अमरीका के विरुद्ध सोचने को बाध्य करने लगी हैं। नीतियों में प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार, विश्व-व्यापार में प्रभुता और सामरिक दूरदृष्टि है। कई नीतियों में अमरीकी नागरिकों को रोजगार देने की बात भी कही गई है। किन्तु नीतियों के क्रियान्वयन में तानाशाही दिखाई पड़ रही है।
अलग-अलग देशों के साथ अमरीका का व्यवहार असमंजसतापूर्ण दिखाई दे रहा है। इसका असर दूसरे देशों पर भी हो रहा है। पाकिस्तान की पहले मदद की, फिर रोक दी। आतंकवाद से निपटने की चेतावनी भी दे रहा है। पाकिस्तान में ही चीन भी कमर में हाथ डाले खड़ा है। अफगानिस्तान में तालिबान-अमरीका आमने-सामने हैं। कल ही कश्मीर के पहलगाम में इतना बड़ा आतंकी हमला हुआ है। क्या हमारे लिए कम महत्वपूर्ण है?
चीन के आयात पर जितने कर, प्रतिबन्ध अमरीका ने लगाए हैं, असामान्य हैं। पिछली सरकार ने चीन के साथ किए गए अनुबन्धों को रद्द कर दिया। कई तरह की तकनीकी सेवाओं को प्रतिबन्धित कर दिया। चीन सागर में अमरीकी युद्धपोत तैनात कर दिए। एक तरह से चीन विरोधी वातावरण बना दिया। सम्पूर्ण विश्व में जो प्रतिक्रिया हुई, अमरीका ने भी सुनी होगी। चीन ने भी पलटवार किया।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी कम डिक्टेटर नहीं हैं। वे और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन दोनों ही आजीवन राष्ट्रपति बने रहेंगे। दोनों ही डिक्टेटर हैं। चीन भी अमरीका के अनुबन्धों को स्वीकार करने को राजी नहीं हुआ। हवाई जहाजों का, दूध, पनीर, अनाज तक सारे आर्डर रद्द कर दिए। अमरीका इतने बड़े-बड़े आर्डर का माल किसे बेचे। एक भारत ही ऐसा देश है।
रूस के साथ ट्रंप भले ही हमदर्दी जताता रहे, किन्तु अमरीकी संस्थान रूस के साथ नहीं है। सन् 2016 के चुनावों में रूसी हस्तक्षेप का आरोप है। रूस के साथ हथियार नियंत्रण संधियों से भी दूरी बना ली है।
अन्तरराष्ट्रीय परमाणु समझौते से अमरीका के मुकर जाने के बाद युद्ध जैसा तनाव व्याप्त हो गया। इसी प्रकार नाटो के सदस्य देशों को लेकर भी असमंजस की स्थिति है। अमरीका, सदस्यों से अधिक रक्षा खर्च की मांग कर रहा है। इससे सदस्यों का झुकाव रूस की ओर बढ़ रहा है।
ईरान तो युद्ध में फंसा हुआ ही है। ऐसे में सन् 2015 का बहुपक्षीय परमाणु समझौता (आईसीपीओए) रद्द कर दिया-अमरीका द्वारा। इसके अलावा ईरान पर नए आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिए। जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या के बाद दोनों देशों के सम्बन्ध और बिगड़े। आज स्थिति युद्ध जैसी बनी हुई है। समझौता रद्द होने से अमरीका के कुछ सहयोगी देश दूर बैठे नजर आ रहे हैं।
अमरीका को धन और सत्ता के आगे भी सोचने की जरूरत है। मित्र जन्म के साथ पैदा नहीं होते, बनाए जाते हैं। रिश्तेदार जन्म से साथ होते हैं। अमरीका के दोनों ओर समुद्र है, उत्तर में एक कनाडा है। कोई जन्मजात रिश्तेदार नहीं है। भारत के साथ (चारों ओर) अनेक सगे-सम्बन्धी हैं। उनके साथ आर्थिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक सभी तरह की नीतियों पर विचार करके ही कदम उठाने पड़ते हैं। अमरीका के दबाव में एकाएक कुछ नहीं स्वीकार सकते। पाकिस्तान में चीन घुसा है, बांग्लादेश में अराजकता की स्थिति है। यही स्थिति अफगानिस्तान की है। भारत के भी रूस-चीन के साथ कई समझौते हैं। हमें उन्हें भी ध्यान में रखना है। रूस और चीन के साथ अमरीका के नए प्रतिबन्धों का प्रभाव इस क्षेत्र के देशों पर भी होगा। अमरीका को हमारी आर्थिक सुरक्षा के साथ क्षेत्रीय सुरक्षा पर पड़ने वाले प्रभावों को भी ध्यान में रखना होगा। कोई भी एक पक्षीय निर्णय लाभदायक ही निकले, यह अनिवार्य नहीं है। वैसे तो अधिकांश निर्णयों पर अर्द्धविराम (पॉज) लगा देना भी इसी बात का प्रमाण है कि अमरीका को भी भीतर में बड़ा झटका लगा है। राष्ट्रपति ट्रंप की छवि में भी गिरावट आई, बाजार भी औंधे मुंह गिरा। विराम लगते ही विश्व की अर्थव्यवस्था पुन: सांस लेने लगी है। महामहिम ट्रंप! धन बहुत छोटी अनिवार्यता है। इंसान से बड़ी कोई दौलत नहीं होती। कोई भी बड़ा निर्णय लेने के पहले स्वयं (अमरीका) के साथ दूसरे पर पड़ने वाले भावनात्मक-सांस्कृतिक तथा सुरक्षा पर पड़ने वाले प्रभावों को भी समझ लें। आम नागरिकों के लिए ये ही उनके जीवन की प्रतिष्ठा होती है।
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