पहलगाम की घटना को इसी की एक कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। इसलिए भारत द्वारा पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा करना, सिंधु जल संधि को सस्पेंड करना और अन्य कदम उठाने संबंधी निर्णय लेना उचित हैं और अपेक्षित भी। लेकिन क्या दुनिया बेनकाब हो चुके पाकिस्तान के खिलाफ भारत के साथ खड़ी है जैसे कि 9/11 की घटना के बाद अमरीका के साथ खड़ी थी? ऐसे ही कुछ प्रश्न और भी हैं। पहला – 1990 के दशक से ही भारत उन आतंकी घटनाओं को लेकर पाकिस्तान की तरफ उंगली उठाता रहा, जो पाकिस्तान की धरती से संचालित या गाइड हो रही हैं लेकिन क्या अमरीका सहित पश्चिमी दुनिया ने इसे पूरी तरह से स्वीकार किया? अगर हां तो क्या कोई संयुक्त कार्रवाई की पहल की? नहीं, लेकिन जैसे ही अलकायदा-तालिबान ने वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमला किया वैसे ही अलकायदा-तालिबानी आतंकवाद को वैश्विक आतंकवाद करार दे दिया गया। ऐसा क्यों? एक बात और, पूरी दुनिया जानती थी कि इस आतंकवाद की धमनियों को मिल रहा रक्त किसका है, इसकी नाभि कहां है लेकिन क्या उसके (पाकिस्तान) के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई? अमरीका की तरफ से ‘वॉर अगेंस्ट टेररिज्म’ की घोषणा की गई और ‘वॉर इंड्यूरिंग फ्रीडम’ के नाम से सैन्य कार्रवाई शुरू कर दी गई। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने सितंबर 2001 में दो प्रस्ताव (प्रस्ताव 1368 और प्रस्ताव 1373) पारित कर आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई और आत्मरक्षा के अधिकार को मान्यता दे दी। अफगानिस्तान में अलकायदा-तालिबान का शासन समाप्त भी हो गया लेकिन आतंकवाद की नाभि पर प्रहार नहीं हुआ बल्कि अमरीका इस्लामाबाद की बजाय बगदाद की तरफ मुड़ गया।
काबुल और बगदाद का ध्वंस हुआ लेकिन इस्लामाबाद का नहीं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आतंकवाद के खिलाफ इस युद्ध अभियान में ‘फादर ऑफ एशियन टेररिज्म’ यानी पाकिस्तान को सिपहसालार बनाकर पेश कर दिया गया। दूसरा प्रश्न यह है कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं सहित पश्चिमी दुनिया आखिर कहां सोई हुई है? दुनिया जानती है कि पाकिस्तान आतंकवाद का एपिसेंटर है लेकिन अमरीका, चीन और पश्चिम को यह क्यों नहीं दिख रहा? सालों साल से आतंकवाद से जुड़ी सूचनाएं विभिन्न संस्थाओं और दुनियाभर के पत्रकारों के जरिए एकत्रित की जा रही हैं जिनके आधार पर यह स्थापित हो चुका है कि पाकिस्तान आतंकवाद को पोषण करता है। ध्यान रहे कि जब जनरल राहील शरीफ पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष बने थे तो उन्होंने बार-बार दोहराया था कि पाकिस्तान को देश के भीतर के चरमपंथ से निपटने पर जोर देना चाहिए न कि विदेशों को जिम्मेदार ठहराना चाहिए। इसके बाद जनरल कमर बाजवा ने भी यही दोहराया है कि चरमपंथ देशी खतरा है न कि विदेशी। जबकि पाकिस्तान की सरकार आतंक की बड़ी घटनाओं के लिए देश के भीतर चरमपंथी संगठनों के बजाय भारत या फिर अफगानिस्तान को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश करती रही है।
भारत लम्बे समय से ऐसे आतंकवाद से पीडि़त है, जिसका केन्द्र (एपिसेंटर) किसी न किसी रूप से पाकिस्तान रहा है। पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ आतंकवाद के शस्त्र का प्रयोग तब किया जब वह भारत से लड़ी जाने वाली प्रत्यक्ष लड़ाइयों में कई बार हार चुका था। स्वतंत्रता प्राप्ति के तीन माह के अंदर मेजर जनरल अकबर खान जिसका सपना पाकिस्तान की सेना का पहला कमांडर इन चीफ बनना था, के कमांड में कबाइलियों द्वारा जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण की योजना बनाई गई थी। यद्यपि अकबर खान कश्मीर को भारतीय बलों की मजबूत पकड़ से मुक्त नहीं करा पाया लेकिन कबाइली हमलों के अनुभव के आधार पर संगठित अपारंपरिक युद्ध नीति द्वारा कश्मीर को आजाद कराने के तरीकों पर एक थीसिस विचारार्थ प्रस्तुत की जिसका सिद्धांत था ‘कश्मीर पर कब्जा करने के लिए पारंपरिक युद्ध’ की आवश्यकता नहीं है। अपारंपरिक युद्ध में यदि भारत बदले में आक्रमण करता है तो विश्व मत पाकिस्तान के पक्ष में होगा। यही हुआ भी। पाकिस्तान का दूसरा प्रयोग था ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ जो 1965 में कश्मीर में भारत के खिलाफ शुरू हुआ।
1980 के दशक में आइएसआइ को अफगानिस्तान में ‘बीयर ट्रैप’ रणनीति में सफलता मिल चुकी थी। 1989 में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान को छोड़ दिया और उसी वर्ष आइएसआइ ने जम्मू-कश्मीर में छाया युद्ध शुरू कर दिया। हालांकि ‘बीयर ट्रैप’ की नीति यहां सफल नहीं हुई। पाकिस्तान में बहुत आतंकवादी संगठन फले-फूले जिनका मकसद था भारत के विभिन्न भागों में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देना। पाकिस्तान की बीयर ट्रैप अब भी जारी है। बहरहाल अब वक्त आ गया है कि पाकिस्तान को उचित जवाब व दुनिया को उचित संदेश दिया जाए।