यह आयोजन 29 जनवरी तक चला, जिसमें भारत के विभिन्न राज्यों के लोकनृत्य, लोकगीत, लोकनाट्य और पारंपरिक खानपान की झलक देखने को मिली। इस
कार्यक्रम का उद्घाटन राज्यपाल मंगूभाई पटेल और मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने किया।
विदेशी लोकनृत्य और ’परपरा में वाद्य’ संगोष्ठी आकर्षण का केंद्र
महोत्सव में भारत के साथ-साथ विदेशी लोकनृत्य भी प्रस्तुत किए गए, जिसमें पेरिस और जर्मनी के नृत्य समूहों ने प्रस्तुतियों से
दर्शकों का मन मोहा। ‘परंपरा में वाद्य’ संगोष्ठी में भारतभर से आए शोधकर्ताओं ने अपने पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ भाग लिया।
विलुप्त होती परपराओं को सहेजने का प्रयास
डॉ. संजू साहू ने अपने शोध में मुंडा बाजा के महत्व को बताया और इसे बचाने की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि आधुनिकता के प्रभाव से यह वाद्य विलुप्ति के कगार पर है, लेकिन संस्कृति प्रेमियों और शोधकर्ताओं के प्रयासों से इसे सहेजा जा सकता है। इस अवसर पर संस्कृति विभाग के निदेशक धर्मेंद्र पारे ने कहा कि लोकरंग जैसे महोत्सव पारंपरिक लोककलाओं को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बस्तर के राजा दशहरा उत्सव में मुंडा जनजाति को आमंत्रित करते हैं। जब मां दंतेश्वरी की मावली छत्री को उनके दरबार से मंदिर तक लाया जाता है, तब मुंडा बाजा की गूंज सबसे प्रमुख होती है। यह वाद्य न केवल धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा है, बल्कि यह बस्तर की सांस्कृतिक पहचान भी है।