सूत्रों के अनुसार पिछले सात साल के आंकड़ों पर नजर डालें तो अठारह साल तक के बालकों की तुलना में घर छोडऩे वाली बालिकाओं की संख्या चौगुनी से भी ज्यादा है। इनमें वर्ष 2023 में लापता हुई दो व वर्ष 2024 में गायब हुई चार नाबालिग बालिकाओं का अब तक पता नहीं लग पाया है। वहीं वर्ष 2023 से गायब एक बालक भी अब तक घर वापस नहीं आया है। पिछले सात साल यानी वर्ष 2018 से 2024 तक 99 बालक घर से लापता हुए थे, जबकि इस अंतराल में घर छोडऩे वाली बालिकाओं की संख्या 458 थी। इन आंकड़ों से साफ है कि घर छोडऩे वाली बालिकाएं चार गुना से भी अधिक थीं।
सूत्रों के अनुसार नाबालिग के मामलों को छोड़ दें तो पुलिस अन्य गुमशुदा व्यक्तियों की तलाश में ज्यादा दौड़-धूप नहीं करती। इसके पीछे उसका मानना है कि वो बालिग है और अपनी मर्जी से कहीं भी आने-जाने के लिए स्वतंत्र है। अपने आप ही वापस आ जाएगा। हालांकि सोशल मीडिया/बैंक खाते पर नजर रखने से कई बालिग पुलिस की पकड़ में आ रहे हैं। पुलिस ने इस तरह के मामलों में सोशल मीडिया एकाउंट्स से लेकर गुमशुदा व्यक्ति की मानसिक स्थिति, दूर-दराज के रिश्तेदार आदि का ब्योरा लेने का सिस्टम अपना लिया है, ताकि उस व्यक्ति को जल्द से जल्द खोजा जा सके। बालिग व्यक्तियों की गुमशुदगी के मामले में पुलिस शुरुआत में तेजी से काम नहीं करती है। इस कारण व्यक्ति पहुंच से दूर होता जाता है। इस स्थिति में परिजन कई बार पुलिस के खिलाफ न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दाखिल कर देते हैं।
नियम-कायदे का नहीं हो रहा फॉलोअप सूत्रों का कहना है कि कुछ समय पहले तक के नियमों की बात करें तो गुमशुदा का फोटो/पेम्पलेट सार्वजनिक स्थानों के साथ अखबार तक में चस्पा करना था। इसका बजट तक मुख्यालय से स्वीकृत हो जाता था। इसके अलावा गुमशुदा की तलाश के लिए विशेष टीम गठित की जाती थी। राज्य ही नहीं देशभर में इसकी सूचना भेजी जाती थी। यही नहीं पहले जिलास्तर, फिर रेंज स्तर पर अधिकारी हर गुमशुदा केस की मॉनिटरिंग करते थे। नाबालिग को तलाशने पर ज्यादा ध्यान दिया जाता था।
बालिग ज्यादा होते हैं लापता, घर वापसी भी कम बताया जाता है कि नाबालिग की तुलना में बालिगों की संख्या काफी ज्यादा है। इनमें भी महिला/युवतियां और शादी-शुदा शामिल हैं। ऐसे कई मामले आए जिनके अपहरण की रिपोर्ट दर्ज हुई, पुलिस ने पकड़ा भी तो विवाहिता अथवा युवती ने मनमर्जी से किसी के साथ रहने की बात कही। ऐसे में उन्हें स्वतंत्र रहने को छोड़ दिया । यह भी सामने आया कि बालिग की घर वापसी नाबालिगों की तुलना में कम है।
अब ऐसे तलाशे जाते हैं बालिग गुमशुदा व्यक्ति के सोशल मीडिया एकाउंट्स जैसे फेसबुक, वॉट्स एप से लेकर उसके मित्रों के कॉन्टेक्ट नंबर, उसकी मानसिक स्थिति, लैपटॉप या कम्प्यूटर का उपयोग करता है तो उसके तहत अनुसंधान होता है। पुलिस गुमशुदा के परिजन से उसके क्रेडिट कार्ड/एटीएम, बैंक खाते, ई-वॉलेट, पे-टीएम आदि की जानकारी लेती है, ताकि उसके जरिए बैंकिंग ट्रांजेक्शन करने पर उसकी उपस्थिति का पता लगाया जा सके। सीसीटीवी फुटेज के जरिए भी काफी कुछ मदद मिलती है। गुमशुदा ने यात्रा पर जाने के लिए रेलवे, एयर, बस टिकट और होटल की ऑनलाइन बुकिंग की या नहीं। करीबी रिश्तेदार/दोस्त से लेकर पड़ोसी, साथ काम करने वाले या साथ वाले से पुलिस जल्द से जल्द बात करती है।
ठोस कानून बने, बालिग को क्यों तलाशे पुलिस इस संबंध में पुलिस अफसरों से बातचीत में सामने आया कि बालिग को तलाशने का जिम्मा पुलिस का क्यों? कई मामलों में उधार बढऩे तो कई प्रेम-प्रसंग या फिर परिजनों से लड़ाई-झगड़े पर घर छोड़ देते हैं। ऐसे में जब तक कि उनकी गुमशुदगी से अपराध घटने की आशंका नहीं हो उनको तलाशने का जिम्मा पुलिस पर क्यों? कई मामलों में देखा कि युवक अथवा युवती घर छोड़कर दूसरे राज्य में किसी के साथ लिव इन में रहते पाए गए, अब ऐसे में पुलिस की दौड़-धूप व अनावश्यक खर्च सब बेकार गया। वैसे ही पुलिसकर्मी काफी कम हैं, ऐसे में रोजमर्रा के अनुसंधान समेत अन्य काम भी गुमशुदा को तलाशने से प्रभावित हो रहे हैं।
करीब चालीस फीसदी मामले पिछले सात साल का ब्योरा खंगालने पर सामने आया कि चालीस फीसदी गुमशुदा बालिग सोशल मीडिया अथवा बैंक लेन-देन के जरिए ही पकड़ में आए। सोशल मीडिया अथवा इस लेन-देन से उनकी मौजूदगी का पता चला और फिर पुलिस ने उन्हें दस्तयाब किया।
इनका कहना सोशल मीडिया के जरिए पुलिस को काफी मदद मिलती है। आईडी सही हो तो संबंधित गुमशुदा की चैटिंग समेत अन्य जानकारियां मिल जाती हैं। यह सही है कि सोशल मीडिया/बैंक लेन-देन सहित अन्य कई माध्यम से बालिगों को ढूंढना आसान रहता है। वो इसलिए भी कि मोबाइल के बिना कोई रह नहीं पाता और इसी के जरिए सभी गतिविधियां संचालित करता है। लोकेशन से लेकर अन्य जानकारियां भी पुलिस को मिल ही जाती हैं।
-नूर मोहम्मद, एएसपी (सिकॉउ) नागौर