scriptआर्थिक विकास तथा लोकतंत्र को कमजोर कर रहा भ्रष्टाचार | Corruption is weakening economic development and democracy | Patrika News
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आर्थिक विकास तथा लोकतंत्र को कमजोर कर रहा भ्रष्टाचार

– डॉ. ज्योति सिडाना, समाजशास्त्री तथा स्तम्भकार

जयपुरFeb 23, 2025 / 06:33 pm

Sanjeev Mathur

भ्रष्टाचार को एक ऐसे गैर-संस्थागत व्यवहार की संज्ञा दी जा सकती है जिसमें सत्ता या पद का दुरुपयोग शामिल होता है, निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को प्रभावित किया जा सकता है। साथ ही अपने लाभ के लिए दूसरों के अधिकार और कल्याण से जुड़े मानदंडों का उल्लंघन शामिल हो सकता है। भ्रष्टाचार उन सभी क्रियाओं या व्यवहारों को कहते हैं जिनसे किसी व्यक्ति अथवा समूह विशेष को उससे क्षति हो। यानी भ्रष्टाचार पारस्परिक विश्वास को ठेस पहुंचाता है, लोकतंत्र को कमजोर करता है और आर्थिक विकास की राह में भी बाधा उत्पन्न करता है। और तो और इससे समाज में असमानता, गरीबी, सामाजिक विभाजन और पर्यावरण संकट को भी बढ़ावा मिलता है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से यह एक प्रकार का विचलन मूलक व्यवहार है जो सामाजिक नियमों के प्रतिकूल है, अर्थात यह ऐसे परिणामों को उत्पन्न करता है जिनका समाज की एकता और संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
हाल ही गैर-सरकारी संगठन ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा भ्रष्टाचार बोध सूचकांक 2024 जारी किया गया है। इसमें 180 देशों और क्षेत्रों को उनके सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार के कथित स्तरों के आधार पर अंक दिए जाते हैं। जो कि 0 से 100 तक होते हैं, जहां 100 का मतलब बहुत साफ-सुथरा और 0 का मतलब अत्यधिक भ्रष्ट होता है। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2024 में भारत 96वें स्थान पर आ गया जो कि पिछले वर्ष 2023 में 93वें स्थान पर था। रिपोर्ट के अनुसार भ्रष्टाचार सिर्फ आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता के लिए खतरा नहीं है, बल्कि यह जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों को भी कमजोर करता है। क्योंकि जलवायु नीति के लिए आबंटित धन भ्रष्टाचार के कारण सही जगह नहीं पहुंच पाता। इससे पर्यावरण से जुड़े प्रोजेक्ट पूरे नहीं हो पाते, जिससे ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएं और गंभीर हो जाती हैं। इसी तरह शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, निर्माण कार्यों के लिए दिया गया बजट कभी भी पूरी तरह से इन योजनाओं पर खर्च हो ही नहीं पाता, परिणामस्वरूप विकास और कल्याणकारी योजनाएं बीच में ही दम तोड़ देती हैं और विकास मूर्त रूप नहीं ले पाता।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भ्रष्टाचार एवं पूंजीवादी विकास के मध्य एक सकारात्मक सह-संबंध है। अतीत से लेकर अब तक गरीबी उन्मूलन के लिए किए गए सरकारी प्रयासों से यह पता चलता है कि भ्रष्टाचार एक स्थायी बाधा है जिसका सामना हमें सामाजिक और आर्थिक सुधार और विकास की प्रक्रिया के दौरान करना पड़ता है। क्योंकि यह न केवल राजनीतिक निर्णयों को गुमराह करता है, बल्कि राजकोषीय बजट को विकृत करता है, नीति क्रियान्वयन की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करता है और अंतत: विकास की दिशा को भी प्रभावित करता है। इसी तरह सफलता प्रारूप एवं भ्रष्टाचार के मध्य संबंध की भी तलाश की जा सकती है। मनुष्य अपनी आर्थिक आकांक्षाओं को पूरा करने और संसाधनों पर अधिक से अधिक स्वामित्व प्राप्त करने के लिए अपने पद/ऑफिस का दुरुपयोग करने से भी नहीं झिझकते। इस बात में कोई संदेह नहीं कि इस गैर-संस्थागत व्यवहार ने राजनीतिज्ञों एवं अपराधियों में गठजोड़ को उत्पन्न कर दिया है। धन और संपत्ति का समाज के कुछ गिने-चुने लोगों के हाथों में संकेंद्रण होना और उनके द्वारा राज्य की विभिन्न इकाइयों को अपने हितों की पूर्ति के लिए प्रयुक्त करने की प्रक्रिया भ्रष्टाचार का प्रचलित और सामान्य स्वरूप कहा जा सकता है। संभवत: इसलिए एक सामान्य नागरिक विकास के अनेक लाभों से आज भी वंचित नजर आता है। आज के समय में भ्रष्टाचार इतना सार्वजानिक हो गया है कि लोगों ने यह स्वीकार कर लिया है कि बिना रिश्वत दिए कोई काम होगा ही नहीं या समय पर नहीं होगा। सामाजिक-आर्थिक असमानता, प्रशासनिक व्यवस्था का अप्रभावी होना, जातिवाद, भाई भतीजावाद जैसी व्याधियों ने समाज में एक भ्रष्ट व्यवस्था को बढ़ावा दिया है। केवल इतना ही नहीं अपितु नौकरी पाने, प्रमोशन लेने, पेपर लीक करवाने जैसी गतिविधियों में भी इसकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।
अकादमिक क्षेत्र में देखें तो पीएचडी की उपाधि लेने के लिए पैसे देकर शोध कार्य करवाना, पैसे देकर रिसर्च पेपर लिखवाना, पुरस्कार खरीदना आदि भ्रष्टाचार के ही नए स्वरूप कहे जा सकते हैं। एजेंट के माध्यम से बिना ड्राइविंग टेस्ट दिए ड्राइविंग लाइसेंस घर पर आ जाना, सडक़ और भवन निर्माण कार्यों में नियमों के उल्लंघन की अनदेखी करना क्या भ्रष्टाचार नहीं है? बीमार न होने पर भी झूठे मेडिकल बिल बनवाना, इसे नैतिकता की समाप्ति का युग कहा जा सकता है, जहां सब कुछ बिकाऊ है सिर्फ आपके पास पैसे होने चाहिए। कुछ हद तक डीप स्टेट को भ्रष्टाचार के साथ जोडक़र देखा जा सकता है जिसमें राज्य खुद को कॉर्पोरेट वल्र्ड के सामने समर्पित कर देता है। वेबस्टर शब्दकोश के अनुसार डीप स्टेट से अभिप्राय विशेष रूप से गैर-निर्वाचित सरकारी अधिकारियों और निजी संस्थाओं (जैसे वित्तीय सेवाओं और रक्षा उद्योगों में) के एक कथित गुप्त नेटवर्क से है जो सरकारी नीतियों और निर्णयों को प्रभावित करने और लागू करने के लिए गैर-कानूनी रूप से काम करता है। सत्ता को अपने पक्ष में निर्णय लेने के लिए दबाव डालता है और इस प्रकार भ्रष्टाचार संस्थागत रूप ग्रहण कर लेता है।
ऐसा नहीं कि भ्रष्टाचार की घटनाएं पहले कभी सामने नहीं आई, अपितु अनेक घोटाले सामने आए, लेकिन कभी उन पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया क्योंकि अगर ऐसा होता तो कॉर्पोरेट विश्व बनाम राज्य का विवाद उभरकर आ जाता। आज की आधुनिक ग्लोबल दुनिया में एक नए प्रकार का बिजनेस मॉडल उभर कर आया है। उदाहरण के लिए जब कोई उद्योग खोलने के लिए जमीन लेता है और उसके बदले में वहां से विस्थापित लोगों को उचित मुआवजा नहीं मिलना… या अस्पताल में उन डॉक्टर्स को नियुक्त करना जिनके नाम पर अधिक से अधिक पेशेंट आ सकें, बदले में उनको हाई सैलेरी देना… या फिर निजी स्कूलों और कॉलेजों में अधिक से अधिक स्टूडेंट्स का नामांकन करने वाले शिक्षकों को प्रोत्साहित करना आदि ने भ्रष्टाचार को एक व्यापक यथार्थ बना दिया है। इसका खामियाजा धनी वर्ग नहीं भुगतता क्योंकि उनके लिए यह लाभ कमाने की एक प्रक्रिया है परंतु निम्न और मध्य वर्ग के जीवन के लिए यह चुनौती है क्योंकि भ्रष्टाचार के कारण उन्हें अपनी बुनियादी जरूरतों को कम करना पड़ता है। इसलिए कहा जा सकता है कि आज भ्रष्टाचार निम्न एवं मध्य वर्ग के लिए गरीबी की संभावनाओं को उत्पन्न करता है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी जब नीति-नियमों को तैयार किया जाता है तो अधिकांशत: एक वर्ग विशेष को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। और दूसरी तरफ जनता को इतना अधिक हाशिए पर ला दिया जाता है कि वह भ्रष्टाचार को अपनी जिंदगी का हिस्सा मान बैठती है। उन्हें लगता है कि अब छोटी सी छोटी चीज पाने के लिए भी उसे भ्रष्टाचारियों का सहारा लेना पड़ेगा। अगर वह वस्तु उसे नहीं मिलती है तो वह पुन: हाशिए पर आ जाता है इसलिए अब भ्रष्टाचार को उसने अपनी जिंदगी का हिस्सा मान लिया है। यह भी एक तथ्य है कि चुनाव प्रक्रिया भी आज के समय में भ्रष्टाचार से ग्रसित है ईमानदार के चुनाव हारने की संभावना अधिक होती है। इवान इलिच का यह तर्क कि विकास नियोजित किस्म की गरीबी है, सही प्रतीत होता है।
सोचने का विषय यह है कि इन सबके लिए कौन जिम्मेदार है और इसे कैसे रोका जा सकता है? क्या केवल नैतिक और मूल्य-आधारित शिक्षा के द्वारा इसे रोका जा सकता है या कुछ कानूनों की सहायता से इस समस्या को जड़ से समाप्त किया जा सकता है? अगर ऐसा हो सकता तो संभवत: अब तक भ्रष्टाचारी देशों की श्रेणी में हमारे देश की स्थिति में कुछ सुधार हुआ होता. आंग सान सू की ने फ्रीडम फ्रॉम फियर में यह तर्क दिया है कि शक्ति भ्रष्ट नहीं करती, बल्कि भय भ्रष्ट करता है। सत्ता खोने का भय उसे चलाने वालों को भ्रष्ट करता है और सत्ता के अभिशाप का भय उसे भ्रष्ट करता है जो उसके अधीन होते हैं। काम के घंटे बढ़ाने से जीडीपी बढ़े न बढ़े, लेकिन भ्रष्टाचार को रोकने या समाप्त करने से देश जरूर विकास के सपने को मूर्त रूप दे सकेगा।

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