ऐसा नहीं कि भ्रष्टाचार की घटनाएं पहले कभी सामने नहीं आई, अपितु अनेक घोटाले सामने आए, लेकिन कभी उन पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया क्योंकि अगर ऐसा होता तो कॉर्पोरेट विश्व बनाम राज्य का विवाद उभरकर आ जाता। आज की आधुनिक ग्लोबल दुनिया में एक नए प्रकार का बिजनेस मॉडल उभर कर आया है। उदाहरण के लिए जब कोई उद्योग खोलने के लिए जमीन लेता है और उसके बदले में वहां से विस्थापित लोगों को उचित मुआवजा नहीं मिलना… या अस्पताल में उन डॉक्टर्स को नियुक्त करना जिनके नाम पर अधिक से अधिक पेशेंट आ सकें, बदले में उनको हाई सैलेरी देना… या फिर निजी स्कूलों और कॉलेजों में अधिक से अधिक स्टूडेंट्स का नामांकन करने वाले शिक्षकों को प्रोत्साहित करना आदि ने भ्रष्टाचार को एक व्यापक यथार्थ बना दिया है। इसका खामियाजा धनी वर्ग नहीं भुगतता क्योंकि उनके लिए यह लाभ कमाने की एक प्रक्रिया है परंतु निम्न और मध्य वर्ग के जीवन के लिए यह चुनौती है क्योंकि भ्रष्टाचार के कारण उन्हें अपनी बुनियादी जरूरतों को कम करना पड़ता है। इसलिए कहा जा सकता है कि आज भ्रष्टाचार निम्न एवं मध्य वर्ग के लिए गरीबी की संभावनाओं को उत्पन्न करता है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी जब नीति-नियमों को तैयार किया जाता है तो अधिकांशत: एक वर्ग विशेष को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। और दूसरी तरफ जनता को इतना अधिक हाशिए पर ला दिया जाता है कि वह भ्रष्टाचार को अपनी जिंदगी का हिस्सा मान बैठती है। उन्हें लगता है कि अब छोटी सी छोटी चीज पाने के लिए भी उसे भ्रष्टाचारियों का सहारा लेना पड़ेगा। अगर वह वस्तु उसे नहीं मिलती है तो वह पुन: हाशिए पर आ जाता है इसलिए अब भ्रष्टाचार को उसने अपनी जिंदगी का हिस्सा मान लिया है। यह भी एक तथ्य है कि चुनाव प्रक्रिया भी आज के समय में भ्रष्टाचार से ग्रसित है ईमानदार के चुनाव हारने की संभावना अधिक होती है। इवान इलिच का यह तर्क कि विकास नियोजित किस्म की गरीबी है, सही प्रतीत होता है।
सोचने का विषय यह है कि इन सबके लिए कौन जिम्मेदार है और इसे कैसे रोका जा सकता है? क्या केवल नैतिक और मूल्य-आधारित शिक्षा के द्वारा इसे रोका जा सकता है या कुछ कानूनों की सहायता से इस समस्या को जड़ से समाप्त किया जा सकता है? अगर ऐसा हो सकता तो संभवत: अब तक भ्रष्टाचारी देशों की श्रेणी में हमारे देश की स्थिति में कुछ सुधार हुआ होता. आंग सान सू की ने फ्रीडम फ्रॉम फियर में यह तर्क दिया है कि शक्ति भ्रष्ट नहीं करती, बल्कि भय भ्रष्ट करता है। सत्ता खोने का भय उसे चलाने वालों को भ्रष्ट करता है और सत्ता के अभिशाप का भय उसे भ्रष्ट करता है जो उसके अधीन होते हैं। काम के घंटे बढ़ाने से जीडीपी बढ़े न बढ़े, लेकिन भ्रष्टाचार को रोकने या समाप्त करने से देश जरूर विकास के सपने को मूर्त रूप दे सकेगा।