द्रौपदी चपल भी थी, कृष्ण सखा थे, कौरव पक्ष के प्रति आक्रामक थी। दु:शासन जब उसे द्यूत सभा में बालों से पकड़कर लाया, तब आहत बहुत हुई किन्तु मर्यादा में रही। समय-समय पर पाण्डवों को उकसाती भी रहती थी, विशेषकर अर्जुन को। शायद उसके जन्म के निमित्त कारणों में से एक था। नारी के प्रति अवज्ञा भाव के चलते सीता ने भी राम को माफ नहीं किया और द्रौपदी ने पाण्डवों को, भीष्म को कम नहीं कहा। दोनों ने ही स्त्रैण भाव की पुरुष के प्रति भूमिका का आदर्श निर्वहन भी किया और अपने पौरुष अंश की परिपक्वता का उदाहरण प्रस्तुत किया। मंदोदरी, सावित्री, तारामति (हरिश्चन्द्र), राधा, देवकी, रुक्मणी जैसे उदाहरणों से देश की संस्कृति ओत-प्रोत है। अवतार श्रेणी की स्त्रियां थीं वे। उनके भीतर-हृदय में-भी कृष्ण थे। सीता और द्रौपदी दोनों का विवाह स्वयंवर के द्वारा, कठिन परीक्षाओं के द्वारा हुआ था। राम को रावण का वध करना था और धृष्टद्युम्न को द्रोणाचार्य का। सीता माध्यम बनी रावण वध का और द्रौपदी द्रोणाचार्य के वध का। दोनों ही उदाहरण एक ही बात कह रहे हैं- किसी भी संकल्पित स्त्री को अपमानित करने वाले का कुल ही नष्ट हो जाता है। अभिशप्त करने की यह शक्ति पुरुष को कठोर साधना से अर्जित करनी पड़ती है। अर्थात् स्त्री के भीतर के पुरुष को संकल्पित साधक होना पड़ता है। यही सतीत्व है।
अग्नि की प्रखरता ही सतीत्व है। अग्नि का यम-आदित्य स्वरूप यज्ञ को पूर्णता नहीं दे सकता। न ही सोम का आप्-वायु स्वरूप। दोनों ही मन की चंचलता के परिणाम भी हैं और भीतर के अपरिपक्व केन्द्र का प्रमाण भी। ब्रह्म का विस्तार शरीर में दिखाई देता है। सांस्कृतिक-प्राकृतिक जीवन स्वरूप में आत्मिक यज्ञ की पूर्णता रही है। जैसे-जैसे जीवन शरीर तक सीमित रहने लगा, यज्ञ की अग्नि और आहुति द्रव्य दोनों की गुणवत्ता घटती चली गई। ब्रह्मचर्य का यही अर्थ है।
जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन। मन कामना का केन्द्र है। बाहरी जीवन से इन्द्रिय मन जुड़ता है। मन का निर्माण सोम रूप अन्न से होता है। पुरुष शरीर में सोम भीतर की संस्था है- स्त्रैण भाव है। शुक्र ही मन निर्माता है। शुक्र का ह्रास ही कमजोर मन का कारक है।
चंचलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।। (गीता 6.34) ये तो अर्जुन के मन की पीड़ा थी। आज के युवकों का हाल क्या होगा। उनको विषय का कोई ज्ञान नहीं, शरीर का ज्ञान नहीं, कामना के स्वरूप का ज्ञान नहीं। तब यज्ञ क्या फल देगा! नवांकुर स्थिति में जिज्ञासा और भय भी साथ रहते हैं। पहले विवाह जल्दी होने से यह क्रम टूट जाता था। आज युवाकाल तक भी यह क्रम बना रहता है। इसी काल में कई अनहोनी कहानियां भी बनती जाती हैं।
आज इन विषयों का न केवल साहित्य उपलब्ध है, बल्कि मोबाइल, इंटरनेट पर फिल्में उपलब्ध हैं। तब व्यक्ति को विचारों से मुक्ति कैसे मिले? विचार ही कामना में बदलते हैं। मन संस्कारित नहीं होता। अत: अधोगति का प्रवाह विश्राम नहीं पाता। शुक्र क्षय के कारण ही ओज एवं मन की पटुता का क्षय होता है। आप: घन अवस्था को छोड़कर तरल अवस्था को प्राप्त हो जाता है। इस कारण आहुति द्रव्य अग्नि को शांत नहीं कर पाता। सभी पुंभ्रूण जल जाते हैं। अथवा निर्बल हो जाते हैं। भले ही मातरिश्वा उनको डिम्ब तक ले जाए, वे भीतर प्रवेश नहीं कर पाते।
पुरुष के अनुपात में स्त्री भीतर से दृढ़ होती है, किन्तु अन्न के प्रभाव से चंचलता अधिक होती है। दूसरा तथ्य यह भी है कि उसका काम क्षेत्र शोणित होने से शीघ्र प्रभावित भी हो जाती है। काम के अतिरेक से उसके शोणित की उष्णता कम हो जाती है। मंथन क्रम में प्रज्ज्वलन का तापमान अल्प रह जाता है। आप: के प्रभाव से अग्नि क्षणभर में ही शान्त हो जाता है। यज्ञ क्रम बाधित हो जाता है।
वैसे तो सृष्टि विस्तार राग पर आधारित है। इसकी मर्यादा तय करना ही जीवन की सुन्दरता है। अति सर्वत्र वर्जयेत्। दूसरी ओर राम ने अग्नि परीक्षा के बाद भी सीता के प्रति कोई राग प्रकट नहीं किया। पत्नी मोह सीता को वापिस नहीं लाया, राजधर्म को कलंकित होने से बचाना था। यही स्थिति तब भी सामने आई, जब गर्भस्थिति में सीता को जंगल में छुड़वाया। सांसारिक धर्म का महत्त्व कितना-सा रह गया। राम भीतर जीकर चले गए।
कृष्ण बाहर जिए। चहक-महक-माधुर्य सदा बने रहे। राजा थे, आठ रानियां थीं, सन्तानें थीं। बालपन एक स्वतंत्र काल था। असुरों का वध तो राम ने भी किया था किशोर अवस्था में। कृष्ण जीवन की समग्रता बनकर जिए। उनका स्त्रैण भाव भी पूर्णता लिए था। राधा के बिछोह से विचलित नहीं थे, जैसे राम हुए, सीता के जाने के बाद।
मन ही राम है, मन ही कृष्ण है। अव्यय मन ही वाक् की ओर प्रवाहित होकर क्षरित होता है। मन ही श्वोवसीयस रूप आनन्द में प्रतिष्ठा पाता है। एक छोर पर भीष्म और दूसरे पर शिखण्डी।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com