बाघों की अप्राकृतिक मौतों का बढ़ता आंकड़ा चिंताजनक
नृपेन्द्र अभिषेक नृप, स्वतंत्र लेखक
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भारत में बाघ संरक्षण की दिशा में बीते कुछ वर्षों में महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां दर्ज की गई हैं। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण और विभिन्न वन्यजीव संरक्षण एजेंसियों के प्रयासों से बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है, जिससे भारत को वैश्विक मंच पर एक सकारात्मक पहचान मिली है। हालांकि, इन उपलब्धियों के बीच बाघों की अप्राकृतिक और रहस्यमय मौतों का बढ़ता आंकड़ा चिंता का विषय है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के आंकड़ों के अनुसार, 2012 से 2024 के बीच देश में कुल 1,453 बाघों की मौत हुई है। इनमें से 753 बाघों की मौत तो सिर्फ बाघ अभयारण्यों के भीतर हुई है। यदि पिछले पांच वर्षों (2020-2024) के आंकड़ों पर गौर करें, तो इस अवधि में 631 बाघों की मौत दर्ज की गई, जिसमें से 379 बाघों की मौत के कारणों का अब तक कोई पता नहीं चल पाया है। यह तथ्य वन्यजीव संरक्षण के लिए कार्यरत सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े करता है। यदि इतनी बड़ी संख्या में बाघों की मृत्यु का कारण अज्ञात रहता है, तो यह स्पष्ट संकेत देता है कि शिकारियों और वन्यजीव तस्करों का नेटवर्क अभी भी सक्रिय है और सरकारी एजेंसियां इन्हें रोकने में पूरी तरह सफल नहीं हो पाई हैं।
बाघों की मौत के कई कारण हो सकते हैं, जिनमें शिकार, प्राकृतिक कारण, आपसी संघर्ष, अवैध तस्करी, पर्यावरणीय बदलाव और मानवीय दखल प्रमुख हैं। लेकिन चिंता की बात यह है कि पिछले पांच वर्षों में मरने वाले बाघों में से 60 प्रतिशत की मौत के कारण अब तक अज्ञात हैं। यह सरकारी एजेंसियों की निगरानी व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है। भारत में बाघों के शिकार की समस्या दशकों से बनी हुई है। बाघों की खाल, हड्डियां और अन्य अंगों की अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारी मांग है, जिससे अवैध शिकार को बढ़ावा मिलता है। कई मामलों में स्थानीय शिकारी भी अंतरराष्ट्रीय तस्करी गिरोहों के लिए काम करते हैं। बाघों की मौत का रहस्य यह दर्शाता है कि या तो शिकारियों का नेटवर्क अधिक संगठित हो गया है, या फिर वन विभाग और संरक्षण एजेंसियों की सतर्कता में गंभीर कमी आई है। इसके अलावा, बाघों की मौत का एक प्रमुख कारण उनके प्राकृतिक आवासों में तेजी से हो रहा क्षरण भी है। बढ़ती मानव जनसंख्या और शहरीकरण के चलते जंगलों का क्षेत्रफल लगातार घटता जा रहा है, जिससे बाघों को भोजन और सुरक्षित आवास के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जंगलों के कटाव के कारण बाघों को मजबूरन मानव बस्तियों की ओर जाना पड़ता है, जहां वे या तो मारे जाते हैं, या फिर संघर्ष में घायल होकर दम तोड़ देते हैं।
बाघ परियोजनाओं के भीतर भी बाघों की मौतों का आंकड़ा दर्शाता है कि संरक्षित क्षेत्र भी बाघों के लिए पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। विशेष रूप से महाराष्ट्र का चंद्रपुर जिला, जो ताड़ोबा बाघ अभयारण्य के लिए प्रसिद्ध है, इस समस्या का एक बड़ा उदाहरण है। यहां बाघों की संख्या रिजर्व क्षेत्र के बजाय बाहर अधिक पाई गई है, जिससे स्पष्ट होता है कि संरक्षित क्षेत्रों में भोजन और आवास की कमी के चलते बाघ बाहर जाने के लिए विवश हैं। इससे मानव-बाघ संघर्ष की घटनाएं भी बढ़ रही हैं, जिससे बाघों के मारे जाने की आशंका और अधिक बढ़ जाती है। बाघों की घटती संख्या को रोकने के लिए भारत सरकार ने कई योजनाएं चलाई हैं, जिनमें ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ सबसे प्रमुख है। इसके अलावा, बाघ संरक्षण को लेकर केंद्र और राज्य सरकारें संयुक्त रूप से कार्य कर रही हैं। लेकिन मौजूदा आंकड़े बताते हैं कि संरक्षण एजेंसियों को अपनी रणनीतियों में सुधार करने की आवश्यकता है। सरकार को चाहिए कि वह बाघों की मौत के कारणों की सही तरीके से पड़ताल करने के लिए एक मजबूत और पारदर्शी निगरानी तंत्र विकसित करे। इसके तहत जंगलों में कैमरा ट्रैप, ड्रोन सर्विलांस और जमीनी स्तर पर वन अधिकारियों की गश्त को और प्रभावी बनाया जाना चाहिए।
इसके अलावा, वन्यजीव अपराधों की जांच करने वाले अधिकारियों को आधुनिक प्रशिक्षण और तकनीकी सहायता दी जानी चाहिए, ताकि वे शिकारी गिरोहों को पकडऩे में अधिक सक्षम हो सकें। इसके साथ ही, जंगलों के संरक्षण और विस्तार पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। सरकार को चाहिए कि वह जंगल कटाई पर सख्ती से रोक लगाए और नए वन्यजीव गलियारे विकसित करे, ताकि बाघों को सुरक्षित आवास मिल सके और वे मानव बस्तियों से दूर रह सकें। हालांकि बाघों की संख्या में वृद्धि भारत के लिए गर्व की बात है। वर्ष 2018 भारत में बाघों की संख्या 2,967 थी, जो 2022 में बढ़कर 3,167 हो गई। यह महत्त्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि 20वीं शताब्दी में बाघों की संख्या चिंताजनक रूप से घट गई थी, जिसके चलते 1973 में ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ की शुरुआत करनी पड़ी। बाघों की रहस्यमय मौतें गंभीर चिंता का विषय है। यदि वन्यजीव संरक्षण एजेंसियां और सरकार इस समस्या का समाधान नहीं निकाल पातीं, तो बाघों की बढ़ती संख्या भी स्थायी नहीं रह पाएगी। इसलिए बाघ संरक्षण को केवल आंकड़ों तक सीमित न रखा जाए, बल्कि इसे धरातल पर प्रभावी रूप से लागू करने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं। बाघ संरक्षण को एक सामूहिक जिम्मेदारी के रूप में देखने की जरूरत है।
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