उन्होंने सदन को बताया कि श्रम समवर्ती सूची का विषय है, इसलिए श्रम कानूनों का प्रवर्तन राज्य सरकारों और केंद्र सरकार द्वारा अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में किया जाता है। उन्होंने कहा कि केंद्रीय क्षेत्र में प्रवर्तन केंद्रीय औद्योगिक संबंध तंत्र (सीआईआरएम) के निरीक्षण अधिकारियों के माध्यम से किया जाता है, जबकि राज्यों में अनुपालन उनके श्रम प्रवर्तन तंत्र के माध्यम से सुनिश्चित किया जाता है। मौजूदा श्रम कानूनों के अनुसार, काम के घंटे और ओवरटाइम सहित काम करने की स्थितियों को फैक्ट्रीज़ एक्ट 1948 और संबंधित राज्य सरकारों के दुकान और प्रतिष्ठान अधिनियमों के प्रावधानों के माध्यम से विनियमित किया जाता है।
ज्यादा काम मानसिक स्वास्थ्य पर डाल सकता है असर
हालांकि, सप्ताह में 70-90 घंटे काम करने के प्रस्ताव को लेकर बहस जारी है। हाल ही में बजट-पूर्व आर्थिक सर्वेक्षण ने इस मुद्दे पर चर्चा की और कहा कि 60 घंटे से अधिक कार्य करने से श्रमिकों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। सर्वेक्षण में यह भी बताया गया कि लंबे समय तक डेस्क पर बैठने से मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, और जिन व्यक्तियों को 12 घंटे या उससे अधिक समय तक डेस्क पर बैठना पड़ता है, उनके मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट होती है। यह सर्वेक्षण पेगा एफ नफ्राडी बी (2021) और डब्ल्यूएचओ/ILO के संयुक्त अनुमानों का हवाला देते हुए बताता है कि लंबे कार्य घंटे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं, और यह स्थिति कार्य-प्रेरित बीमारियों का कारण बन सकती है।
काम के घंटों पर बहस
आर्थिक विकास बनाम श्रमिक स्वास्थ्य: कुछ कॉर्पोरेट नेताओं का तर्क है कि कार्य घंटों को बढ़ाने से उत्पादकता में वृद्धि हो सकती है, जिससे आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलेगा। हालांकि, आलोचकों का कहना है कि श्रमिकों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर इसका जो नकारात्मक असर पड़ेगा, वह दीर्घकालिक उत्पादकता और आर्थिक परिणामों को प्रभावित कर सकता है। मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंता: लंबे कार्य घंटों का मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अध्ययन बताते हैं कि अत्यधिक काम से तनाव, चिंता और मानसिक थकावट जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं। इसके अलावा, शारीरिक स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है, जैसे कि मस्क्यूलोस्केलेटल समस्याएं, जो कार्यकुशलता को प्रभावित करती हैं।
मौजूदा श्रम कानून: भारत के मौजूदा श्रम कानून श्रमिकों को अधिक कार्य घंटे से बचाने के लिए बनाए गए हैं। ये कानून कार्य और श्रमिकों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाए रखने के उद्देश्य से हैं, लेकिन कुछ लोग इस बात की वकालत करते हैं कि समय के साथ श्रम कानूनों में सुधार की जरूरत है, विशेष रूप से नई कार्य-प्रणालियों जैसे कि गिग इकॉनमी के मद्देनजर।
राज्य बनाम केंद्रीय प्रवर्तन: श्रम कानूनों के प्रवर्तन की जिम्मेदारी केंद्र और राज्य सरकारों के बीच साझा की जाती है। इससे यह समस्या उत्पन्न हो सकती है कि विभिन्न राज्यों में श्रमिकों के अधिकारों की सुरक्षा अलग-अलग तरीके से की जाती है, और यह कार्यस्थलों में असमानता का कारण बन सकता है।
कॉर्पोरेट क्षेत्र का दबाव: लंबे कार्य घंटे बढ़ाने की मांग मुख्य रूप से कॉर्पोरेट क्षेत्र से उठ रही है, खासकर उन उद्योगों में, जहां उत्पादकता को अक्सर काम किए गए घंटों से मापा जाता है। हालांकि, श्रमिकों और मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा कार्य-जीवन संतुलन पर अधिक जोर दिया जा रहा है।
हालांकि सरकार ने 70-90 घंटे काम करने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है, यह बहस लगातार बढ़ रही है। यह आर्थिक उत्पादकता और श्रमिकों की भलाई के बीच संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता को उजागर करती है। जैसे-जैसे भारत अपनी कार्यशक्ति और अर्थव्यवस्था का विकास करता है, यह बहस और भी अधिक गहरी होगी और श्रमिकों के अधिकारों और स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता महसूस हो सकती है।