माया ब्रह्म की इच्छा का नाम है। प्रकृति स्वयं ब्रह्म ही का कार्य रूप है। विद्या और अविद्या ही परा-अपरा प्रकृति है। स्त्री को ब्रह्म ही पैदा करता है-बहुस्याम्-इच्छापूर्ति के लिए। पुरुष-प्रकृति मिलकर सृष्टि चलाते हैं। मानव सृष्टि में नर-नारी हैं। नारी में एक मां है, दूसरी पत्नी है। माया परा प्रकृति है, पत्नी अपरा प्रकृति है। माया-महामाया जीवात्मा से सम्बन्ध रखती हैं, प्रकृति नर से। माया, जहां सृष्टि विस्तार का संकेत पाती है-वहां ब्रह्म शुक्र के आदान-प्रदान की प्रक्रिया मानव दम्पती में शुरू कर देती है। ब्रह्म शुक्र (बीज) ही पुरुष शरीर से स्त्री शरीर में प्रवेश करता है। पुत्र उत्पन्न होता है। ब्रह्मेच्छा के अभाव में कन्या पैदा होती है। वंश वृद्धि ठहर जाती है। भोग रह जाता है।
सृष्टि में भोग का स्थान ही नहीं है। अतिक्रमण-आक्रमण का स्थान ही नहीं है। आज हम दूसरों का हिस्सा भी लूटकर खाना चाहते हैं। अपने सुख के लिए किसी को भी कष्ट में डाल देते हैं। जबकि हमारा दर्शन सहअस्तित्व पर आधारित है।
‘ऊं सहनाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै। ऊं शान्ति: शान्ति: शान्ति:।’
अर्थात्-एक साथ हम दो आगे बढ़ सकते हैं। एक साथ हम दो (गुरु-शिष्य) आनन्द ले सकते हैं। हमारा जीवन प्रतिभा से भरा हो। हम शत्रुता को जन्म न दें। जीवन को साथ भोगने का अर्थ है एक-दूसरे का अन्न बनकर जीना-वैसे ही मन का निर्माण होगा। यही हमारे दाम्पत्य भाव का मूल मंत्र है। एक-दूसरे का अन्न बनने का तात्पर्य एक-दूसरे का मन समान हो, एकात्मभाव हो। एक-दूसरे की रक्षा, सम्मान का भाव जहां होता है, वहां अतिक्रमण नहीं हो सकता।
मन रागात्मक है-आसक्ति का क्षेत्र है, काम-क्रोध-लोभ तीनों का प्रवेश द्वार मन है। हर वस्तु या प्राणी का भी कोई न कोई स्वामी होता है। स्वामी की स्वीकृति के बिना उसकी वस्तु का भोग करना ही अतिक्रमण है। अनाधिकार चेष्टा है। इसी दृष्टि से उपनिषद् कहता है-
‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किंच जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्यस्विद्धनम् ॥’ (ईशोपनिषद्) मन-प्राण-वाक् तीनों में तीनों की आहुति होती है। मन से कामना का उदय होता है। स्व कामना द्वारा मन ही विषय भोक्ता है। यही अर्थ ‘भुंजीथा’ मन के भोगतंत्र का है। प्राण क्रियात्मक व्यापार है। वाक् को धामच्छद कहते हैं। जिससे आवरण पैदा होता है। भोग-कर्म-आवरण तीनों ही स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर रूप पृथक-पृथक हैं। स्थूल शरीर के भोग में मन को वाक् का सहारा लेना पड़ता है। सूक्ष्म शरीर के भोग में प्राण की अपेक्षा होती है। कारण शरीर में मन प्रधान है।
उपरोक्त मंत्र का अर्थ है-सम्पूर्ण जगत ईश्वर की सत्ता से व्याप्त है। ईश्वर के दिए हुए का ही भोग करना चाहिए। पराए धन-पराई वस्तु की इच्छा मत करो। जब तक उस वस्तु पर उसके स्वामी का सत्व/अधिकार है, तब तक उसे लेने की इच्छा मत करो। ऐसा करने से समाज में अशांति फैलती है। प्रत्येक सम्बन्धी एक-दूसरे के विरोध में कोर्ट में जाने लगा है। प्रत्येक गृहस्थ-जीवन ज्वालामुखी बन रहा है। अत: हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम पराए सत्व पर कभी दृष्टि न डालें। आज वातावरण ऐसा है कि अपने अभ्युदय के लिए दूसरे को पराजित किया जाता है। ताकि दूसरे की वस्तु पर अपना अधिकार जमाया जा सके। दूसरा मार्ग है जब स्वामी स्वयं का अधिकार छोड़ दे अथवा दान कर दे, तब आप ग्रहण कर सकते हैं। अन्नदान, कन्यादान, वस्त्रदान, भूमिदान अपनी इच्छा से ही किए जाते हैं।
भोग कर्ता अग्नि है, भुक्त सोम अथवा अन्न कहलाता है। अग्नि की तीन अवस्थाएं-अग्नि, यम (वायु), आदित्य (घन, तरल, विरल) तथा सोम की भी तीन अवस्थाएं-आप-वायु-सोम होती हैं। स्त्री सोम है, अन्न है। बिना स्वामी की स्वीकृति के भोग नहीं करना चाहिए। स्वतंत्र स्त्री ही भोग के योग्य है। स्त्री वस्तु की श्रेणी में आती है। ब्रह्म ने स्त्री को पैदा किया, अपने विस्तार के लिए। वह ब्रह्म की वस्तु, ब्रह्म द्वारा उत्पन्न की गई है। ब्रह्म जानता है कि उसने स्त्री को क्यों पैदा किया है। स्त्री को नहीं मालूम उसे किसने पैदा किया और क्यों!
पुरुष ब्रह्म है, बीज युक्त है। अत: नया विवर्त उत्पन्न करने की क्षमता रहती है उसमें। स्त्री के पास बीज नहीं है, धरती की भांति है वह। उसे संस्कारित करके निजी उपयोग के लिए तैयार किया जाता है। शरीर से सभी स्त्रियां समान लगती हैं। जबकि स्त्री शरीर नहीं है। अत: भीतर भिन्न है। शादी के अवसर पर पिता बेटी को कन्यादान रूप में पति को साैंपता है। आज के बाद पति ही उसके लिए अधिकृत पुरुष है। स्त्री अब अपने भीतर के संकल्पित पुरुष से पति को संस्कारित करना शुरू कर देती है। भीतर वही स्वामिनी है। उसका वही पौरुष रूप उसकी दिव्यता कहलाता है। पति की रक्षा के सारे कर्म करती जाती है। उस पर अन्य पुरुष का आक्रमण निषेध है। स्त्री वाक् है, वस्तु है-स्थूल देह है। मंत्र में इसी भोग के अर्थ में ‘भुंजीथा’ कहा है। मंत्र में मनोमय भोगतंत्र का निरूपण है। स्थूल शरीर के भोग में भी मन को वाक् का सहारा लेना पड़ता है। अत: आत्मा प्रभावित हो जाता है।
पुरातन काल में भी सन्तान प्राप्ति के लिए ऋषि अन्य ऋषि पत्नी को मांगकर ले जाते थे। जो विधिवत् ले गया, स्त्री उसी पुरुष की हो जाती है। ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ मूल में ईश्वरीय आस्था के साथ आप्तकाम* रहकर जीने का मार्ग है।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com